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भाषा-शैली
भाषा और शैली का सम्बन्ध अटूट है । भाषा भावों को अभिव्यक्त करने का साधन है और शैली अभिव्यक्ति का ढंग है।
भाषा भाव और विचारों को स्पष्ट रूप में रखने का साधन है। इसलिए वह स्वच्छ होनी चाहिए, कारीगरी से रहित । दूसरे शब्दों में, सहजता
और भावानुरूपता उसकी बड़ी विशेषता है। यदि भावानुरूप भाषा अपनी गति में स्थल-स्थल पर अपना रंग बदलती है और अनेक रूप धारण करती है तो उसकी यह अनेकरूपता भी सहृदय के आलिंगन योग्य बनती है। भाषा की इस अनेकरूपता से अभिप्राय उसकी कलाबाजी से नहीं है, हृदयरस से सम्पुटित कला से है।
'कहने की आवश्यकता नहीं कि कवि-कर्म का सम्बन्ध भावाभिव्यंजना से है, जिसमें उसकी कला भी बहुत बड़ा हाथ रखती है; किन्तु जहाँ कला का प्रदर्शन होता है, अर्थात् जहाँ कला नुमायशी चीज बन जाती है, वहाँ कवित्व उसके पीछे छिप जाता है। इसीलिए काव्य की भाषा सहज, पात्र एवं प्रसंग के अनुकूल, मूर्ति विधायिनी और मधुर होनी चाहिए। उसमें हृदयगत भावों को छूने की पूरी शक्ति होनी चाहिए, इसी में उसकी सार्थकता है।
भाषा की भाँति शैली की सरलता, सुबोधता एवं स्वच्छता पर विद्वानों द्वारा बल दिया गया है । सरल शैली सारग्राहिणी सामर्थ्य रखती है, इसी
१. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ १४६ । २. डॉ० सरनामसिंह शर्मा 'अरुण' : विमर्श और निष्कर्ष, पृष्ठ ७१ । ३. डॉ० नगेन्द्र : साकेत-एक अध्ययन, पृष्ठ १५५-५७ । ४. डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी । सूर साहित्य, पृष्ठ १५४ ।