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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
करुण रस की भाँति सभी प्रबन्धकाव्यों में भयानक रस के अधिक स्थलों का समावेश नहीं है। कुछ काव्यों में उसकी अवतारणा सफल कही जा सकती है। आगे अद्भुत रस की योजना द्रष्टव्य है ।
अद्भुत रस
जैन प्रबन्धकाव्यों में यत्र-तत्र अद्भुत रस के अनेक प्रसंगों की उद्भावना हुई है। अद्भुत रस की प्रतीति छोटी-छोटी उक्तियों में भी होती है
और लम्बे अवतरणों में भी । 'नेमिचन्द्रिका' (आसकरण) से एक उद्धरण अवतरित है :
बांये अंगूठा नाग जगाय । नासा स्वर सौं संख बजाय ।। सुनौं संख रव कृष्ण सुजान । ततछिन आनि पुहंचे थान ।। देखो नेमीश्वर को भाव । अचरज मानो किन्नर भाव ॥'
यहाँ नेमीश्वर आलम्बन है और कृष्ण एवं किन्नर आश्रय । बाँये अंगुष्ठ से नाग को जगाना और नासिका स्वर से शंख को बजाना उद्दीपन हैं। कृष्ण और किन्नरों के हृदय में आश्चर्य का अतिरेक मानसिक अनुभाव है। आवेग, चपलता आदि व्यभिचारी भाव हैं। इस प्रकार 'विस्मय' पुष्ट होकर अद्भुत रस में व्यक्त हुआ है।
'सीता चरित' में इस रस के कतिपय प्रसंग सुन्दर बन पड़े हैं। उन प्रसंगों को संजोने में कवि-कौशल दिखायी देता है :
हनुमान देषन भयो, सीता मुष परकास । बैठी देषी रूष तर, मुंदरी डारी पास ॥ डारि मुंदरी गुपत ह,रह यो फलक इक जान । चिन्ता कीनी जानकी, भरे नन जल आन |
. नेमिचन्द्रिका (आसकरण), पृष्ठ ८ । २. सीता चरित, पद्य १३१०, पृष्ठ ७१ ।