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२५६ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
उपयुक्त स्थल साहित्यिक सौन्दर्य से ओत-प्रोत है। इसमें विस्मय क चमत्कार द्रौपदी से आँखमिचौनी का खेल खेलता है।
'शीलकथा' में एक ऐसा प्रसंग' आया है जहाँ उपयुक्त रस की मधुर व्यंजना है।
कर ऊर्ध्वचरन लटकाय दीन । कर नीचे को मुख त्रास दीन ।। फिर चाबुक कर में लियो सार । सो मार दई ताको अपार ॥ विललाय कुंवर नहिं धरै धीर । तब दरवाजे अति भई भीर ॥ मारन वारौ दीख न कोय । मारही मार दिखराय सोय ॥'
हास्य रस
इस क्षेत्र में कुछ आलोच्य कवियों की देन भुलायी नहीं जा सकती है। उन्होंने अपने प्रबन्धों में हास्य रसमूलक प्रसंगों की उद्भावना की है। 'सीता चरित', 'चेतन कर्म चरित्र', 'शतअष्टोत्तरी', 'पंचेन्द्रिय संवाद' प्रभृति काव्यों में कहीं-कहीं हास्य रस की छटा खिलती हुई मिलती है।
'सीता चरित' में शूर्पणखा राम-लक्ष्मण के पास पहुँचती है । उनके रूपसौन्दर्य से रीझकर तुरन्त अपना 'स्वांग' बदलकर सुन्दर कन्या का रूप ले लेती है । लक्ष्मण से 'राम-राम' शब्द के साथ नमस्कार करती हुई 'वरो भूप तुम मोहि' कहती है।
चीर लियो मुष ऊपरै, द्रौपदी फेरि बिचारै बात तौ ॥ यो मुझ सुपनौं आइयो, सांच झूठ मुझ कह यौ न जाय तो।।
रास भणौं श्री नेमि को ।।
-नेमीश्वर रास, पद्य ६३३-३४, पृष्ठ ५६ : १. शीलकथा, पृष्ठ ४३ । २. रावन की भगनी तहां ढूंढत बन में जाय ।
रामर लछिमन देषत, विर्ष ऊपनो आय ।। स्वांग तुरत पलटयौ तहां, कियौ कन्यका रूप । राम राम लछिमन स्यों कह यो, वरो मोहि तुम भूप ॥
-सीता चरित, पद्य ८७५-७६, पृष्ठ ४६ ॥