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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
भाव अनेक स्थलों पर पोषित हुआ है। उनसे हृदय में अप्रिय भावों, विकृतियों और सिहरन तक को जन्म मिलता है।'
'पंचेन्द्रिय संवाद' में कान द्वारा नाक से कहे गये कथन में बीभत्स रस की समायोजना हुई है :
नाक सुरनि पानी झर, बहै सलेष्म अपार ॥ गूघनि कर पूरित रहै, लाजै नहीं गंवार ॥ तेरी छींक सुनै जित, करै न उत्तम काज ॥ मूदे तुह दुर्गंध में, तऊ न आवै लाज ॥
यहाँ कान आश्रय और नाक आलम्बन है। नाक का जुगुप्साजनक चित्र उद्दीपन है । कान द्वारा नाक के सम्बन्ध में उद्वेगमय अनुभूति अनुभाव है। ग्लानि, उग्रता आदि संचारी भावों के द्वारा जुगुप्सा स्थायी भाव बीभत्स रस की सर्जना कर रहा है।
'यशोधर चरित' के प्रणेता पं० लक्ष्मीदास ने देवी के स्थान की चर्चा
.. (क) स्वान स्यार मंजार की, पड़ी कलेवर-रास । मास वसा अरु रुधिर को, कादी जहां कुबास ॥
--पार्वपुराण, पद्य १६८, पृष्ठ ४४ । (ख) मारमार सुनिये सदा, छेत्र महा दुरगंध । बहै बात असुहावनी, असुच छेत्र संबंध ।। .
-वही, पद्य १६१, पृष्ठ ४३ । (ग) तीखे नखन विदारै काया, हाथ कठोरन खंड करै । बांकी दाढ़न सों तन भेदै, वदन भयानक ग्रास भरै।
-वही, पद्य १७७, पृष्ठ ६६ । १, पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य २६-३०, पृष्ठ २४१, पद्य २६-३० । ।