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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
पर रौद्र रस की अभिव्यंजना है। 'सीता चरित' में इस रस के सर्वाधिक प्रसंग आये हैं। इनमें इस रस के संचार की भूमि विस्तृत है।
'शीलकथा' से उद्धत इस अवतरण में रौद्र रस अपने समस्त अवयवों के साथ निष्पन्न होने में समर्थ हुआ है :
ज्यों अगनि माहिं घत परै जोय । त्यों जरो देव अति ऋद्ध होय ॥ पकरे ताके तब चरन सार । धरती पै पछारौ तीन बार ॥ फिर हाथ पांय कसके बनाय । बांधे ताके मुसकें चढ़ाय ।। सुन्दरि को सरनों लेहु जाय। तो प्रान बचें तेरे बनाय ॥ नहिं आसमान लों चढ़ों धाय । तह हूँ ना छोड़ों तुझे जाय ।। जो अधोलोक में पैठ जाय । तो प्रान हरों तेरे बनाय ॥'
यहाँ राजकुमार आलम्बन है । उसके द्वारा हठात् सुन्दरी मनोरमा के शील-भंग का प्रयास उद्दीपन है । प्रहार करना, कठोर वचनों का प्रयोग आदि अनुभाव हैं। उग्रता, गर्व, आवेग आदि व्यभिचारी भाव हैं। इन सबसे 'क्रोध' स्थायी भाव पुष्ट होकर रौद्र रस में अभिव्यंजित हुआ है।
इसी रस का 'चेतन कर्म चरित्र' से एक उद्धरण लीजिए :
तब भेज्यो इक काम कुमार । जो सब दूतन में सरदार ॥ कहो वचन तुम मेरो जाय । क्योंरे अंध अधरमी राय ॥ व्याही तिय छांडहि क्यों कूर । कहां गयो तेरो बल सूर ।। के तो पांय परहु तुम आय । के लरिवे को रहहु सजाय ।।
प्रस्तुत पद्यांश में राजा मोह आश्रय और चेतन आलम्बन है। चेतन द्वारा रानी कुबुद्धि का परित्याग उद्दीपन है । अनुभाव है तीक्ष्ण वचनों का निःसृत होना । आवेग, गर्व, उग्रता आदि संचारी हैं। इस प्रकार स्थायी भाव 'क्रोध' के सहारे रौद्र रस की अभिव्यक्ति हुई है।
१. शीलकथा, पृष्ठ ४३ । .. चेतन कर्म चरित्र, पद्य १४-१५, पृष्ठ ५६ ।