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रस-योजना
२४७ सेनापति सब कही कथा, कही सुनी सब नाथ ।
मन में पछतावै धणो, घसे हाथ से हाथ ॥' प्रस्तुत चित्र में सेनापित आश्रय है; सीता आलम्बन है; निर्जन-एकान्त वन-प्रदेश, करुण-मूर्ति सीता का रुदन, राम की कठोर आज्ञा का पालन और पराधीनता आदि उद्दीपन विभाव हैं; युगलकर जोड़ना, दलगीर होना, ऊँची दृष्टि न करना, नेत्रों से नीर झरना, हाथ से हाथ घिसना अनुभाव हैं; दैन्य, विषाद, लज्जा, ग्लानि, चिन्ता आदि संचारी भाव हैं। स्थायी भाव शोक नहीं है, जिससे यह करुण रस का स्थल माना जाता; किन्तु इस स्थल की कारुणिकता में किसी को सन्देह नहीं हो सकता।
'शीलकथा' में करुणा के कई दृश्य सजीव हैं । उनमें से एक की तलस्पशिता देखिये:
पहुंचौ विकट अरण्य मझार। सारथि रुदन करै अधिकार ।। सुन्दरि सौं तब ऐसी कही। मेरे बस की अब नहिं रही। तब ही रथ सौं दई उतार । चलत भयौ तहं सौं मन मार ॥ फिर फिर जावै फिर फिर आय । मोह थकी छोड़ी नहिं जाय ॥ फिर ताने मन कियो कठोर । रोवत गमन कियौ गृह ओर ॥
ससुराल और पीहर दोनों ओर से आश्रयविहीना मनोरमा को सारथी द्वारा वन में छोड़ने का प्रसंग है। सारथी आश्रय है और मनोरमा आलम्बन । विकट अरण्य और अबला मनोरमा की संकटविपन्न अवस्था और स्वयं सारथी की असहायता उद्दीपन है । रुदन, फिर-फिर आना और फिर-फिर जाना आदि अनुभाव हैं। ग्लानि, विषाद, मोह, शंका आदि संचारी भाव हैं । सारथी के हृदय में मनोरमा के अनिष्ट की आशंका, स्वयं की विवशता
और मोह की अतिशयता के कारण प्रस्तुत स्थल हमको करुणा-सागर में निमग्न कर देता है।
... सीता चरित, पद्य ६८ से ७५, पृष्ठ ६ ।
२. शीलकथा, पृष्ठ ३६ ।