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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
इसी काव्य से रौद्र रस को व्यंजित करने वाला एक और स्थल द्रष्टव्य है, जिसमें रौद्र रस की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है :
पुनि कोप उठी उर मांहि । नभ जीवत छोडौं नांहि ।। रावन बहुतै अति क्रोध, उठ्यो कर भाव विरोध ॥ आयौ जहां सुभट अनेक । उठ्यौ निज आसन टेक ।।
देषी अति नजर करूर । भौंह धनष चढ़ाई सूर ॥ इन प्रबन्धकाव्यों को छोड़कर अधिकांश प्रबन्धकाव्यों में रौद्र रस- के स्थलों का अभाव दिखायी देता है । जिन प्रबन्धों में रौद्र रस की अवतारणा नहीं है, उनमें अन्य रसों की योजना विचारणीय है ।
करुण रस
हमारे प्रबन्धों में करुण रस प्रधान कोई काव्य नहीं मिलता है। किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि उनमें करुण रस की पूर्ण उपेक्षा हुई है । कतिपय काव्यों में यथावसर करुण रस के मार्मिक प्रसंग अवश्य प्राप्य हैं। उनमें अनेक स्थल ऐसे भी हैं जहाँ करुण रस की योजना नहीं है, किन्तु वहाँ करुणा का मूर्त और व्यापक रूप झलकता है। ऐसे भावपरक स्थल एक ओर प्रबन्धत्व के उत्कर्ष में सहायक होते हैं, दूसरी ओर पाठक को विविध भावों के संस्पर्श से पुलकित कर देते हैं । ऐसे करुणापूरित स्थलों (जो कि करुण रस के अधिकांश अवयवों से युक्त हैं) का महत्त्व करुणरसात्मक स्थलों की तुलना में कम नहीं हो जाता; जैसे 'सीता चरित' से अवतरित यह स्थल :
याही बन कौं तुमहिं कौं, हुकम कियौ रघुनाथ । सेवक को कछू बस नहीं, कहौं जोरि जुग हाथ ॥ सेनापति अति रहयो सोच में, भयो बहोत दलगीर । ऊँचौ फिरि देष नहीं, नैन झरै अति नीर ।। माता हूँ विरथा जन्यों, बही मास नौ भार । चाकर ते कूकर भलौ, घृग म्हारौ जम वार ।।
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१. सीता चरित, पद्य १८०६-७, पृष्ठ १०१ ।