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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
नैन झरै अति नीर, वैनन सेती मुष थकी । इह हिरदा की पीर, इह व्यापे सो जानसी ॥ अति से बड़े महंत, रामचन्द पूरब करम । फेरि कहे को अंत, एतो भी माता कहे ।। बेटा थिति करि कोय, बेगि खबरि हम लीजिये । तुम आनन अषि दोय, इक बाईं इक दाहिने ॥
इसी प्रकार 'नेमिचन्द्रिका' (आसकरण) का प्रस्तुत उद्धरण भी वात्सल्य रस के अन्तर्गत रखा जायेगा :
रतन जड़ाव जड़े नील पीत स्याम हरे,
रेसम की डोरिन सों मोती माल लावहीं । भांति भांति बसन बिछौना सुख आसन के,
पौढ़िये जु नेमिनाथ जननी झुलावहीं ॥ झूलत हैं पालना में हर्ष हेत क्रीड़ा करें,
सोइये जु प्राणनाथ नारी बहु गावहीं । धन्य धन्य भाग है सुहाग शिवदेवी तेरो,
भव्यन की आस लगी देखत सुख पावहीं ॥
भयानक रस
विवेचित रसों के अतिरिक्त आलोच्य काव्यों में 'पार्श्वपुराण'३ 'सीता
१. सीता चरित, पद्य ४३० से ४३२, पृष्ठ २७-२८ । २. नेमिचन्द्रिका (आसकरण), पृष्ठ ६ । १. (क) पार्श्वपुराण, पद्य १३२ से १३४, पृष्ठ ३८ ।
(ख) वही, पद्य १३६ से १४०, पृष्ठ ३८ । (ग) वही, पद्य १७७ से १७६, पृष्ठ ४२।