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रस-योजना
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'पार्श्वपुराण' के प्रथम अधिकार में रौद्र रस का एक अच्छा अवतरण आया है। यहाँ राजा अरविन्द आश्रय, दुराचारी कमठ आलम्बन, कमठ द्वारा भाई की पत्नी का शीलभंग करना उद्दीपन, पाप कर्म में लिप्त रहने वाले कमठ के प्रति धिक्कृत वचनों का प्रयोग, दण्ड-प्रहार एवं दण्ड-विधान आदि अनुभाव और अमर्ष, उग्रता आदि व्यभिचारी भाव हैं, जिनसे स्थायी भाव क्रोध पुष्ट होकर रौद्र रस आस्वाद्य बना है ।
_ 'सीता चरित' में रौद्र रस को निष्पन्न करने वाले अनेकानेक स्थल हैं। मन्दोदरी रावण से सीता के शील की प्रशंसा करती हुई कहती है कि वह महासती और शीलवती है । संसार की कोई शक्ति उसे अपने सतीत्व से नहीं डिगा सकती। वह वियोग-वेदना से विह्वल है। आप दया कीजिए
और उसे रामचन्द्र को सौंप आइये ।' रावण इन शब्दों को सुनते ही क्रोध से तमतमा उठता है और मुख से आग उगलता हुआ साक्षात् रौद्र रस की प्रतिमा-सा बन जाता है :
रावन क्रोध कीयो अति भार । दुष्ट दूर होह तू नार ।। भौंह वक्र कीयो छिन मांहि । रहो मती कायर मुझ पांहि ॥ माता सुभट, सुभट की नार । पिता सुभटमय बड़ी उदार ॥ तू काहर काहर वच कहै । काहर होय वचन ए गहे ॥
प्रस्तुत चित्र में रावण आश्रय है और मन्दोदरी आलम्बन । भ्रूभंग और गर्वदीप्त कठोर भाषण अनुभाव हैं । उद्दीपन है मन्दोदरी द्वारा रावण को सत्पथ-अनुसरण का उपदेश । गर्व, अमर्ष, चपलता, आवेग, उग्रता आदि संचारी भाव हैं । इन सबसे परिपोषित क्रोध रौद्र रस की अवतारणा में सफल हुआ है। १. अति निंदी नीच कुकर्मी। जानो निरधार अधर्मी ॥
राजा अति ही रिस कीनों। सिर मुंड दंड बहु दीनों। मुख के कालोंस लगाई। खर रोप्यो पीर न आई॥
-पार्श्वपुराण, पद्य ६०-६१, पृष्ठ १२ । २. सीता चरित, पद्य १८५४-५५, पृष्ठ १०४ ।