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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
उपयुक्त काव्यों के अलावा 'सीता चरित' में भी वीर रस के अनेक स्थलों की अवतारणा हुई है। उसमें यह रस मूर्त होकर आ बैठा है :
रामचंद बलवंत पिता सों यों कह्यौ । जो थी मन में बात दिवस सोई लह्यौ । वे वन बहुतै काठ आगि की हम चिनगारी ।
करें नास छिन मांहि पवन ज्यों पहल उड़ारी ॥ ___ यह राम की वीरता का शंखनाद है । राम आश्रय, दक्षिण के उपद्रवी राक्षस आलम्बन हैं । दशरथ के वात्सल्यपूरित वचन (तुम कोमल और सुकुमार हो, जन्म से तुमने कभी युद्ध नहीं किया) तथा दक्षिण में राक्षसों द्वारा शान्ति भंग करना आदि उद्दीपन विभाव हैं । रामचन्द्र की प्रफुल्लतापूरित गर्वोक्तियाँ अनुभाव हैं । हर्ष, गर्व, धृति इत्यादि संचारी भाव हैं और स्थायी भाव उत्साह है। इस प्रकार वीर रस का यह संश्लिष्ट चित्र बड़ा मनोरम है।
वस्तुतः यह काव्य वीर रस के अनेक स्थलों को समाविष्ट किये हुए है । इसमें इस रस के रंग बदलते हुए अनेक चित्र प्राप्त होते हैं।'
१. सीता चरित, पद्य १६७, पृष्ठ १२ ।। २. (क) महा सुभट बलवंत चले संग्राम कों।
छाँडि सबै परिवार धनी के धाम कों ।। बाढाली विषधार चमक बीजुली । महातेज अति कांत हुतासन की कली।। देषत ही धसकंत हियौ कायर तणों । सावंत रण में जाय हरष उर में घणों।
-वही, पद्य १४२६-३०, पृष्ठ ७६ । (ख) मार्यो है गहिवाण विमान छोडिके।
वायुपूत धुजा गयौ सर तोडिकै॥ फिर दूजो कर वाण सितावी डारि के । छूटत ही रघु चूर कियो सर सार के॥ सीघर तीजो वाण लियो कर तांण के॥
-वही, पद्य १४३७-३८, पृष्ठ ७६ ।