________________
२४०
जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
कर्म चरित्र' प्रमुख है । यद्यपि वह ( वीर रस ) अन्त में जाकर शान्त रस में तिरोहित हो गया है, किन्तु काव्य में प्रधानता वीर रस की है और वही उसका अंगी रस है । काव्य का नायक चेतन आरंभ से अन्त तक मोह तथा अन्य शत्रुओं से युद्ध कर उन पर विजय प्राप्त करने की क्रिया में सजग और सचेष्ट है तथा उसमें एक वीर का अटूट उत्साह है । ' किसी कार्य के सम्पन्न करने के हेतु हमारे मानस में एक विशेष प्रकार की सत्वर क्रिया सजग रहती है, वही तो उत्साह है', ' जो वीर रस का आस्वादन कराता है |
इस काव्य में वीर रस का समुचित निर्वाह अनेक रूपों में हुआ है । युद्ध की चुनौती, ' सेना की सजावट एवं व्यवस्था,' वीरों का उत्साह, दर्प एवं स्वाभिमान, रणनाद और युद्ध की भयानकता, ' दोनों पक्षों में परस्पर अनेक अस्त्र-शस्त्रों के सतत प्रहार, ' युद्ध - कौशल' आदि सभी में वीर रस की व्यंजना है | एक वीररसात्मक स्थल लीजिए :
१. भरत : नाट्य शास्त्रम्, पृष्ठ ८३ ।
२. चेतन कर्म चरित्र, पद्य १५ से २८, पृष्ठ ५६-५७ ।
३. वही, पद्य ४२-४३, पृष्ठ ५६ ।
४.
और सुनहु मेरी अरदास | तब सुध्यान बोलें मुख बैन । आगे सब अरि नसि जाय ।
प्रथम स्वभाव कहे मैं वीर । मोहि न लागें अरि के तीर ॥ छिन में करू अरिन को नास ॥ हुकम तुम्हारे जीतों सैन || सूर देख जिम तिमिर पलाय ॥ - वही, पद्य ५१-५२, पृष्ठ रणसिंगे बज्जहि, कोउ न भज्जहि, करहि महा दोउ जुद्ध । इत जीव हंकारहि, निज परिवारहि, करहु अरिन को रुद्ध ॥ उत मोह चलावे, तब दल धावं, चेतन पकरो आज । इह विधि दोउ दल में कल नहि पल, करहिं अनेक इलाज ॥ -वही, पद्य १६५, पृष्ठ ६१ ।
५.
f वही, पद्य १६६ से १७०, पृष्ठ ७२
।
(क) वही, पद्य १६३-६४, पृष्ठ ७४ । (ख) वही, पद्य २५२, पृष्ठ ८० ।
७.
0 1