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रस-योजना चली जाये मारग में सोय । पंथ अकेली मिल्यौ न कोय । पिया पिया तहां करत विलाप । कहा कंथ मैं कीनो पाप ॥ काहे कंथ दुख मोको दियो । कौने मेरो सुख हर लियौ ॥ जन नहिं पावहि उत्तर देहि । दीरघ स्वास उसास जु लेहि ॥
कैसी मार्मिकता है इस चित्र में ! रस के सभी उपकरण हैं इसमें । विप्रलम्भ शृंगार की यह योजना कितनी अनूठी है ! हमारा संवेदनशील हृदय इन पंक्तियों की भावात्मकता से खिंचकर, भाव-विह्वल होकर गहरे में डूबता चला जाता है।
इसी प्रकार मनरंगलाल की 'नेमिचन्द्रिका' से भी एक उद्धरण द्रष्टव्य है :
कंखौ सकल सरीर तसु, रोम रोम फहराय । धूमि गिरि भू पर तुरत, भई अचेतन भाय । पीय वियोग सूरय उयौ किरन सही अति जोर ।
रमति रूप कमोदनी, मुरझानी लषि भोर ॥२ यहाँ वियोगजन्य वेदना की पूर्ण विवृत्ति है; यही वियोग-दशा की पराकाष्ठा है । आश्रय की शारीरिक विकलता, जो जड़ता में परिणत हो गयी है, उसकी दीन दशा को कितनी उदात्तता से द्योतित करती है !
कहने का तात्पर्य यह है कि कतिपय आलोच्य काव्यों में विप्रलंभ शृगार के स्थल अधिक भावात्मक हैं । उनका रस पाठकों की धरोहर है। उनमें संयोग शृंगार के अल्प स्थल हैं । अन्य रसों की योजना पर आगे विचार किया जा रहा है ।
वीर रस
आलोच्य ग्रन्थों में वीर रस प्रधान काव्य भी मिलते हैं, जिनमें 'चेतन
१. नेमिचन्द्रिका (आसकरण), पृष्ठ १६ । २. नेमिचन्द्रिका.(मनरंगलाल)।