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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
भक्ति रस
आलोच्य काव्यों में शान्त रस के पश्चात् दूसरा स्थान भक्ति रस का है। उनमें स्थल-स्थल पर दिव्य के प्रति अनुराग की झलक है । यही अनुराग भक्ति रस का स्थायी भाव है।
प्रश्न उठता है कि इन प्रबन्धों में भक्ति के आलम्बन कौन हैं ? दिव्य अनुराग किसके प्रति व्यक्त किया गया है ? जबकि जैन-परम्परा में 'राग' को बन्ध का हेतु और मोक्ष-मार्ग में बाधक माना गया है। वस्तुतः यह अनुराग 'वीतरागी' (राग-द्वेष रहित) के प्रति है। वीतरागी स्वयं की आत्मा (आत्मा की सर्वोच्च अवस्था) भी है,' अर्हन्त या तीर्थंकर भी हैं और आचार्य या गुरु भी हैं । सारांश यह है कि वीतरागी प्रभु ही भक्ति के आलम्बन हैं।
प्रबन्धकाव्यों में 'फूलमाल पच्चीसी' सम्पूर्णतः भक्ति रस का काव्य
जीवन जल बुदबुदा जानौं। थिरता न कहुँ ठहरानौं ॥ ताते तजिये इह संसार । सुष नाहीं दुष लहै अपार । छिन छिन काल ग्रसे नहीं टरै। विषई मूढ़ महा दुष भरै ।।
-सीता चरित, पद्य २०२२-२८, पृष्ठ ११५ । '. "आचार्य पूज्यपाद ने 'राग' को भक्ति कहा है, किन्तु उस राग को जो अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन में शुद्ध भाव से किया जाये ।"
-आचार्य पूज्यपाद : सर्वार्थसिद्धि, ६।२४ का भाष्य । शतअष्टोत्तरी, पद्य ६१, पृष्ठ २८ । ३. राजा चल्यौ साथि सब लोग । चले सबै मुनि वंदन जोग ।। राजा जाय नमोस्त करै । बारू बार भगति उच्चर ॥२५६।।
-बंकचोर की कथा, पृष्ठ २६ ।