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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
सीता का यह विलाप और हाहाकार किस हृदय को हिलाने में समर्थ नहीं होता :
सीता फिरे चहूं दिस कबहूं महा मोह अति सीता करें विलाप हा X
वन में, नेक न करें असास | पूरन, कबहूं ग्यान विलास ॥ हा कर्म कहा भयौँ ।
१.
प्रस्तुत स्थल पर सीता आश्रय है और राम आलम्बन । प्रिय-विछोह का दुःख, वन की एकान्तता और भयानकता, सेनापति का गमन आदि उद्दीपन विभाव हैं। आवेग, दैन्य, मोह, विषाद, चपलता, स्मृति आदि संचारी भाव हैं और चहुँ ओर वन में फिरना, आकुलता से भरना, किंचित भी धैर्य न रखना, विलाप करना, कर्म को पुकारना, दुःख भर कर रो देना और पल-पल में भिन्न-भिन्न स्थितियों को प्राप्त होना आदि अनुभाव हैं ।
२.
X
X कबहुँक दुष भरि रोय दे, कबहुँक हांसे कर्म । कबहुँक आरति ध्यान मय, कबहुँ सँभारे धर्म ॥'
इसी काव्य में सीता हरण के अवसर पर वियोगी राम द्वारा सम्पन्न कार्य - व्यापारों में भी विप्रलंभ शृंगार की अच्छी झलक मिलती है । लक्ष्मण को अकेला देखकर वे आश्चर्य से भर उठते हैं और बड़े वेग से आगे बढ़ते हैं । देखते हैं कि सीता नहीं है । वे विकल होकर धरती पर गिर पड़ते हैं, मूर्च्छा खुलने पर वे तुरन्त उठकर आगे चल पड़ते हैं और प्रत्येक से पूछते हैं कि तुमने सीता को देखा है ? राम की इस विकलता में वियोग- दशा का चित्र अत्यन्त मार्मिक बन पड़ा है ।"
सीता चरित, पृष्ठ ६ ।
राम गयो चलि वेग दे, आगे सीता नाहिं | मूरछित व धरनी पर्यो, दुष व्यापो तन माहिं ॥ सावचेत हूवौ तुरत, उठि करि चाल्यो राम । सावन को पूछत फिरें, कहुं देषी सीता वाम ॥
-वही, पद्य ε२३-२४ ॥