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रस-योजना
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निर्वेद, शम और वैराग्य की सशक्त अभिव्यक्ति है, जो शान्त रस की प्रधानता को द्योतित करती है :
सुनि दूत वचन वैरागे । निज मन प्रभु सोचन लागे । मैं इन्द्रासन सुख कीने । लोकोत्तम भोग नवीने ॥ तब तृपति भई तहाँ नाहीं । क्या होय मनुषपद माहीं॥ जो सागर के जल सेती। न बुझी तिसना ऐती ॥ ये भीम भुजंग सरीखे । भ्रम भाव उदय सुभ दीखे ॥ चाखत ही के मुख मीठे । परिपाक समय कटः दीठे॥ ज्यों खाय धतूरा कोई । देखे सब कंचन सोई ॥ धिक ये इन्द्री सुख ऐसे । विषबेल लगे फल जैसे ।। ममता बस तप नहिं लीनों । यह कारज जोग न कीनों ।। अब खाली ढील न कीजै । चारित चिन्तामनि लीजै ॥
यह संसार से पार्श्वनाथ की विरक्ति का चित्र है। इसमें पार्श्वनाथ आश्रय, चारित्र्य-चिन्तामणि अर्थात् परमात्मसुख आलम्बन; दूत के विरागविषयक वचन, तत्त्वज्ञानादि उद्दीपन; सांसारिक सुखों से विरक्ति, धृति, मति, ग्लानि आदि संचारी भाव हैं । इन सबसे पुष्ट स्थायी भाव निर्वेद शान्त रस की स्थिति को पहुंचा है।
मन इन्द्रीसंगति किये रे, जीव परं जग जोय । विषयन की इच्छा बढ़े रे, कैसे शिवपुर होय ॥प्राणी०॥ इन्द्रिन ते मन मारिये रे, . जोरिये आतम माहिं । तोरिये नातो राग सौं रे, फोरिये बल श्यों थाहिं ॥प्राणी०॥ इन्द्रिन नेह निवारिये रे, टारिये क्रोध कषाय । धारिये सम्पति सास्वती रे, तारिये त्रिभुवन राय ॥प्राणी०॥
-पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य १३१-१३५, पृष्ठ २५०-५१ । १. पार्श्वपुराण, पद्य ७६-६२, पृष्ठ ११५-११६ ।