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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
शान्त रस
'शान्त रस अनिर्वाच्य और शम का प्रकर्ष है। इसमें सब भावों का शम प्रधान रहता है और राग-द्वेषादि का अभाव । इसका स्थायी भाव शम या निर्वेद है । मोक्ष, ब्रह्म या आत्मा का अनन्त सुख आलम्बन और साधूसंगति, तत्त्वज्ञान, वस्तुजगत् की निस्सारता आदि उद्दीपन हैं । यमनियमादि (काम-क्रोध, राग-द्वेषादि का अभाव) अनुभाव हैं और धृति, मति, ग्लानि, दैन्य, हर्ष आदि संचारी हैं।
शान्त रस के उपर्युक्त अवयवों को दृष्टि में रखते हुए 'पार्श्वपुराण', 'शतअष्टोत्तरी',३ 'पंचेन्द्रिय संवाद', 'सूआ बत्तीसी', 'नेमिनाथ चरित'६ प्रभृति काव्य शान्त रस प्रधान काव्य हैं । इनकी आधिकारिक एवं प्रासंगिक कथाओं के मध्य में यथावसर अन्य रसों का भी समावेश हुआ है, किन्तु उनमें अधिकांश स्थल शान्त रस के हैं और उनके पर्यवसान में शान्त रस निष्पन्न हुआ है। काव्यगत समग्र प्रभाव की दृष्टि से इन प्रबन्धकाव्यों में
१. धनंजय : दशरूपक, ४ : ४५ ।
(क) पार्श्वपुराण, पद्य १३ से १६, पृष्ठ १७ । (ख) वही, पद्य ७५ से १०३, पृष्ठ ३३ से ३५ । (ग) वही, पद्य ६२ से ८५, पृष्ठ ५५ से ५७ ।
(घ) वही, पद्य ७६ से १२, पृष्ठ ११५-११६ । ३. शतअष्टोत्तरी, पद्य ५ से १०६, पृष्ठ ६ से ३२ । १. पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य १२० से १४६, पृष्ठ २४६ से २५२ । ५. (क) सूआ बत्तीसी, पद्य ३ से ७, पृष्ठ २६८ । " (ख) वही, पद्य २२ से ३२, पृष्ठ २६६ से २७० । ६. नेमिनाथ चरित, पद्य १६१ से १६६ ।
पंचेन्द्रिय की प्रीति सौं रे, जीव सहै दुख घोर ।। काल अनंतहि जग फिरै रे, कहुं न पावै ठौर ॥
॥ प्राणी आतम धरम अनूप रे ॥
क्रमशः