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रस-योजना
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कवि भूधरदास भी ऐसे 'रस-काव्य' रचे जाने के हिमायती नहीं थे।'
किन्तु इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उन कवियों ने शृंगार रस को निरूपित नहीं किया या इससे वे सर्वथा असम्पृक्त रहे। शृगारविषयक अनेक चित्र उनके काव्य में मिलते हैं। वियोग के चित्र तो उसमें
और भी अधिक हैं । संयोग पक्ष अधिक नहीं उभरा है, उसे अधिकांशतः संयत और मर्यादित रूप में ग्रहण किया गया है।
कहने का अभिप्राय यह है कि उन्हें शान्त रस का राजत्व स्वीकार्य हआ। मुख्यतः यही रस उनकी भावनाओं का प्रश्रय-स्थल बना । उन्हें इसी रस में अन्य रस भी दृष्टिगोचर हुए।
उपर्युक्त विवेचन के माध्यम से हमें इतना ही कहना अभीष्ट है कि अधिकांश कवियों ने शान्त रस को प्रमुख रस के रूप में स्वीकार किया है । यही कारण है कि उनकी अधिकतर रचनाओं में शान्त रस प्रधान है; और जिनमें शान्त रस प्रधान नहीं है, वे शान्तावसित अवश्य हैं। उनमें कुछ शृंगार और कुछ वीर-रसात्मक हैं, जिनकी परिणति शान्त रस में ही दिखायी देती है । एक-दो काव्यों में भक्ति रस अंगी होकर आया है ।
राग उदय जग अंध भयो, सहजे सब लोगन लाज गंवाई। सीख बिना नर सीखत हैं, विषयनि के सेवन की सुघराई ।। तापर और रचे रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई। अंध असूझनि की अखियान में झोंकत हैं रज राम दुहाई ॥
--नेमिचन्द्र शास्त्री : हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन, पृष्ठ २२४ । गुन विचार सिंगार, वीर उद्यम उदार रुख । करुना रस सम रीति, हास हिरदै उछाह सुख । अष्ट करम दल मलन, रुद्र बरते तिहि थानक । तन विलक्ष वीभत्स, द्वन्द दुख दसा भयानक । अद्भुत अनंत बल चितवन, शान्त सहज बैराग धुव । नवरस विलास परगास तब, सुबोध घट प्रगट हुव ।।
-बनारसीदास : नाटक समयसार, सर्वशुद्धिद्वार १३४ ।