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रस-योजना
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रहकर रसत्व को प्राप्त होते हैं। वे ही वास्तविक आनन्द के प्रदाता कहे गये हैं।
प्रायः सभी आचार्यों ने स्थायी भावों की संख्या नौ (रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय और शम या निर्वेद) मानी है। आगे चलकर भक्ति और वात्सल्य का भी स्थायी भावों के अन्तर्गत स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार्य हो गया। इस प्रकार ये ग्यारह रसों (शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, शान्त, भक्ति और वात्सल्य) के ग्यारह स्थायी भाव हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि विभाव, अनुभाव, संचारी तथा स्थायी भाव रस के आवश्यक अंग या उपकरण हैं । रस-निष्पत्ति इन्हीं के संयोग से होती है। प्रबन्ध और रस
भाव, विभाव, अनुभाव आदि रसांगों का सम्यक् प्रसार प्रबन्ध की विस्तृत भूमि में ही देखा जा सकता है। शुक्ल जी ने रसान्तर्गत भाव की तीन दशाएँ स्वीकार की हैं-क्षणिक दशा, स्थायी दशा और शील दशा । मुख्यतः भाव की क्षणिक दशा की अनुभूति मुक्तककाव्य में, स्थायी दशा की अनुभूति प्रबन्धकाव्य में और शील दशा की अनुभूति पात्रों के चरित्र-चित्रण में होती है। यदि ध्यान से देखा जाये तो प्रबन्धकाव्य अपनी सीमा में भाव की उपयुक्त तीनों दशाओं का संस्पर्श कर लेता है। भाव-रस की सम्यक अभिव्यंजना के लिए प्रबन्धकाव्य सबसे उपयुक्त काव्यरूप है । यह अवश्य है कि रस-सिद्धि के लिए प्रबन्धकवि को गुरुतर दायित्व का भार वहन करना होता है।
सचमुच प्रबन्ध के इतिवृत्त के मध्य रस की प्रतिष्ठा बड़ा भारी काम है। उसमें प्रबन्धकार को सम्बन्ध-निर्वाह, वस्तु-गति, घटनाओं की शृंखला,
१. देखिए-डॉ० गुलाबराय तथा डॉ. विजयेन्द्र स्नातक : आलोचक
रामचन्द्र शुक्ल, पृष्ठ ८७ ।