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रस- योजना
सारांश यह है कि 'साहित्य का चरम मान रस ही है जिसकी अखण्डता व्यष्टि और समष्टि, सौन्दर्य और उपयोगिता, शाश्वत और सापेक्षिक का अन्तर मिट जाता है ।" अतः विविध पक्षों को दृष्टि में रखते हुए काव्य में रस की अनिवार्यता स्वतः सिद्ध है ।
रस-उपकरण
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भरत मुनि के 'विभावानुभावव्यभिचारीसंयोगाद्रसनिष्पति : ' सूत्रानुसार एक ओर जहाँ रस - निष्पत्ति के स्वरूप का संकेत मिलता है, वहाँ दूसरी ओर उससे रस- निष्पत्ति में सहायक उपकरण भी अवगत होते हैं । ये उपकरण विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव हैं । उन्होंने स्थायी एवं सात्विक भावों को भी रस - सामग्री के अन्तर्गत रखते हुए उन सबके सामान्य गुणयोग से ही रस - निष्पत्ति सम्भव बतलाई है । '
विभाव
वाचिक, आंगिक व सात्विक अभिनय के सहारे चित्तवृत्तियों का विशेष रूप से विभावन अर्थात् ज्ञापन कराने वाले हेतु 'विभाव' कहलाते हैं । विभावन का आशय है- विशेष ज्ञान । विभाव ही वासना-रूप में अत्यन्त सूक्ष्म रूप से अवस्थित रति आदि स्थायी भावों को आस्वाद्य बनाते हैं ।
विभाव के दो भेद हैं : (१) आलम्बन विभाव तथा ( २ ) उद्दीपन विभाव | जो विभाव आश्रय में भाव को जाग्रत करते हैं, वे आलम्बन विभाव हैं और जो जाग्रत भाव को अधिकाधिक उद्दीप्त करते हैं, वे उद्दीपन विभाव हैं । आलम्बन के भी दो भेद हैं : (१) विषय तथा (२) आश्रय |
१. डॉ० नगेन्द्र : विचार और विश्लेषण, पृष्ठ ३ ।
२. देखिए — डॉ० आनन्द प्रकाश दीक्षित : रस - सिद्धान्त: स्वरूप विश्लेषण, पृष्ठ १७ ।
३. वही, पृष्ठ १८ ।
४.
वही ।