________________
२२४
जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
चरित्र-योजना, उद्देश्य आदि कितने ही बिन्दुओं पर दृष्टि रखनी होती है
और उन सबके बीच में रस की सफल योजना कितनी कठिनाई से हो पाती होगी, इसका अनुभव प्रबन्धकार ही कर सकता है। सच तो यह है कि कुशल कवि के हाथ में पड़कर ही प्रबन्धकाव्य रस का स्रोत बनता है।
आलोच्य प्रबन्धकाव्यों में रस
सामान्यतः यह देखने में आता है कि आलोच्य प्रबन्धों में प्रायः सभी रसों की योजना हुई है; परन्तु उनमें प्रधानता शान्त, भक्ति, वीर और शृगार (वियोग पक्ष) की है। उनमें भी शान्त रस शीर्ष पर है, जिसका मूल कारण परम्परा से प्रभाव का ग्रहण है । हमारे युग से पूर्व सुप्रसिद्ध जैन कवि (विक्रम संवत् १६४३-१७००) 'नवमो शान्त रसन को नायक' कहकर शान्त को रसों का नायक स्वीकार कर चुके थे। वे वास्तव में अध्यात्मधारा के पोषक थे और श्रृंगार के अन्तर्गत मांसल प्रेम के विरोधी।
"नवमो शान्त रसन को नायक । ए नव रस एई तब नाटक, जो जहं मगन सोइ तिहि लायक ॥"
-बनारसीदास : नाटक समयसार, सर्वशुद्धिद्वार, १३३ । मांसकी गरंथि कुच कंचन कलस कहैं,
कहैं मुखचन्द जो सलेषमा को घर है। हाड़ के दसन आहि हीरा मोती कहै ताहि,
मांस के अधर ओठ कहें बिंब फरु हैं। हाड़ दंड भुजा कहैं कोल-नाल काम जुधा,
हाड़ ही के थंभा जंघा कहैं रंभा तरु है। यौं ही झूठी जुगति बनावें औ कहावें कवि, __ एते पै कहैं हमें सारदा को बरु है॥
-बनारसीदास : समयसार, अन्तिम प्रशस्ति १८ ।