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________________ २३२ जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन आलम्बन और प्राय: इन्द्र आश्रय हैं । आलम्बन के गुणादि उद्दीपन विभाव है । चित्त वृत्ति की एकाग्रता और हृदय में हर्षादि का उद्व ेलन अनुभाव हैं । हर्ष, सुख, स्मृति आदि संचारी हैं । इन सबसे पोषित भक्ति-भाव भक्ति रस की अनुभूति कराता है । २ 'शील कथा', ' ' सीता चरित', 'श्रेणिक चरित" आदि प्रबन्धों में भक्ति रस के कतिपय स्थल अच्छे बन पड़े हैं। इनमें भक्त हृदय की समर्पणभावना का उन्मेष दिखायी देता है । करुणा सागर अरज हमारी। तारन तरनि सदा सुखकारी ॥ दीन दयाल सुनो तुम सोय । तुम बिन प्रभु और नहि कोय ॥ मात पिता तुम ही जग माहीं । तुम बिन बांधव जग में नाहीं ॥ मैं तो जिनवर शरण तिहारी । अब राखो प्रभु लाज हमारी ॥ - शीलकथा, पृष्ठ ७५ । - २. सीता चरित, पद्य २०८७ से २०६६, पृष्ठ ११६ । ३. चित निरमल घरि प्रणमें जिन पद अधिक भगति उर धार । अष्ट द्रव्य शुभ सेथी पूजा भूपत करें अधिकार || ॥ श्री अरहंत महिमा अति बनी हो ॥ सुगंध मिलि पूजे श्री जिनराइ | नासन को कारण नृप मन लाइ ॥ ॥श्री अरहंत " सुगंध सुभ अक्षत पूज कराई । कारण भूपत जी पूजे मन भाइ ॥ ॥श्री अरहत ************* || ************ || भासै त्रिभुवन आधार । गनधर आदि मुनि सार ॥ ॥श्री अरहंत.......... ************** | -श्रेणिक चरित, पद्य १२१०, १२, १३, २०, पृष्ठ ८२-८३ । १. श्रीखंड कुंकुम कपूर संसार भ्रमन आताप तंदुल उजल अषंड अक्षय पद प्राप्त के जुगल हस्त जोरि स्तुति तुम गुण पार लहै नहीं सुरपति
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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