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चरित्र-योजना
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हुआ है । वह अपने रूप-सौन्दर्य से सुरबालाओं को भी पराजित करने वाली है। वह सदैव पति की मंगल-कामना करती है । वह पति-वियोग का कष्ट सहन नहीं करती, वरन् एक के बाद दूसरी विपत्ति का शिकार बनती है। सीता की भाँति उसे आरम्भ से अन्त तक की जीवन-यात्रा में दारुण वेदना, आँसू और उच्छवासों के अलावा कुछ नहीं मिलता। अपने सतीत्व की रक्षा को सर्वस्व मानते हुए भी पति के घर, पति की अनुपस्थिति में उसके चरित्र पर लांछन लगाया जाता है, सारथी द्वारा उसे वन में छुड़वा दिया जाता है, अपनी माँ के यहाँ भी उसे आश्रय नहीं दिया जाता, अत: वह विवश है अकेली वन में खाक छानने और अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाने के लिये।
मनोरमा के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता है-अपने शील व्रत पर अडिग रहना। एक राजकुमार द्वारा जब उसके पास दूती भेजकर उसे फुसलाने का प्रयास किया जाता है तो वह क्रोध से जल उठती है और उसकी चाबुक से खबर लेती है। जब एक दूसरा राजकुमार बलपूर्वक उसके सती व को छीन लेने की ठान लेता है तो एक क्षण तो उसका नाजुक दिल दीन मृगी की भाँति काँप जाता है, किन्तु दूसरे ही क्षण करुणासागर से अपनी लो लगा लेती है। देव उसकी सहायता के लिए तुरन्त प्रस्तुत हो जाता है, राजकुमार को क्रुद्ध होकर धरती पर तीन बार पछाड़ता है, उसे उलटा लटका देता है, बुरी तरह उसमें मार लगाता है और मनोरमा से क्षमा मांगने पर उसे प्राण-दान देता है।
१. शील कथा, पृष्ठ ५। २. वही, पृष्ठ २८-२६ । ३. सेज सुखासन सोवती, दासी चंपति पाय ।
धूप तनक जो देखती, वदन जाय कुम्हलाय ॥ सो तो विकट अरण्य में, बैठी कोमल नारि । थरहर कंप बदन सब, रुदन करे अधिकारि ।।
-वही, पृष्ठ ३७।
४. वही, पृष्ठ ३२ । ५. वही, पृष्ठ ४३-४४ ।