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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
मिलती है। कुबुद्धि चेतन को पथ-भ्रष्ट करने वाली नारी है और सुबुद्धि है उसे सुपथ पर लाने वाली।
'चेतन कर्म चरित्र' और 'शत अष्टोत्तरी' दोनों ही प्रबन्धकाव्यों में कुबुद्धि के चरित्र की केवल झलक भर दिखायी देती है। ‘शत अष्टोत्तरी' में सुबुद्धि का शील विवेचन अधिक विस्तार से हुआ है। वहाँ उसका चरित्र उज्ज्वल शशि-रश्मियों से आलोकित है । वह अपने पति को निज स्वरूप पहचानने और अनात्मभाव रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का संदेश देते-देते नहीं थकती। असंदिग्ध रूप से वह त्याग और संयम की देवी है, साथ ही अपने पति चेतन (जीव) को शत्रु-भय से विमुक्त करने वाली उद्धारिका है।
१. कह सुबुद्धि इक सीख सुन, जो तू माने कंत ।।
के तो ध्याय स्वरूप निज, के भज श्रीभगवंत ॥ सुनिक सीख सुबुद्धि की, चेतन पकरी मौन ।। उठी कुबुद्धि रिसायके, इह कुलक्षयनी कौन ।। मैं बेटी हूँ मोह की, ब्याही चेतनराय ॥ कही नारि यह कौन है, राखी कहाँ लुकाय ।
-चेतन कर्म चरित्र, पद्य ८-१०, पृष्ठ ५६ । चेतु चेतु चित चेतु, विचक्षण बेर यह । हेतु हेतु तुअ हेतु, कहतु हों रूप' गह ॥ मानि मानि पुनि मानि, जनम यहु बहुरि न पावै । ज्ञान ज्ञान गुण ज्ञान, मूढ़ क्यों जन्म गमावै॥ बहु पुण्य अरे नरभी मिल्यौ, सो तू खोबत बावरे । अजहूँ संभारि कछु गयो नहिं, 'भैया' कहत यह दावरे ।
-शतअष्टोत्तरी, पद्य ५, पृष्ठ ६ । ३. (क) नैननितै देखै सकल, नै ना देरवै नांहि । ताहि देखु को देख तो, नैन झरोखे मांहि ॥
-वही, पद्य ६७, पृष्ठ २३ । (ख) वही, पद्य १०-११, पृष्ठ १० । (ग) वही, पद्य २७-२८, पृष्ठ १४ ।