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चरित्र-योजना
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संघर्ष करते हैं क्योंकि वे राजा मोह के आज्ञाकारी सेवक हैं । राग-द्वेष का
सेनापतित्व देखिये :
राग-द्वेष द्वय मित्र, लिये तब बोलिकैं । तुम ल्याबहु मम फौज, भवन त्रय खोलिकै । बीस आठ-असवार, बड़े सब सूरमा । अरि यो चल आहिं, नदी ज्यों सूरमा ॥'
दोनों पक्षों का परस्पर युद्ध सत् और असत् का युद्ध है । असत् प्रवृत्तियों पर सत् प्रवृतियों की विजय दिखलाना ही कवि का अभीष्ट है । मानवीकृत पात्रों के अलावा प्रतीकीकृत पात्रों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है ।
प्रतीकीकृत चरित्र :
साहित्य में प्रतीकों के माध्यम से भावाभिव्यंजना परम्परा से होती आयी है । प्रतीक वह चित्र है जिसका प्रयोग परोक्ष की अभिव्यक्ति के लिए प्रत्यक्ष वस्तु के चित्रण में किया जाता है । प्रतीक सदैव किसी मध्यस्थ प्रकार के व्यापार का प्रतिनिधि होता है ।
अभिव्यंजना- जगत् में प्रतीक विधान का महत्त्व अपरिहार्य है । प्रतीकों अभिव्यक्त किया जाता
द्वारा सत्य को अधिक सशक्त एवं मार्मिक रूप में है । यह न समझना चाहिए कि काव्य में प्रतीकों का के लिए किया जाता है, प्रत्युत वे काव्य के आधारभूत अंग हैं ।"
प्रयोग केवल सजावट
प्रतीकीकृत चरित्र-भाव की महत् व्यंजना अर्थात् तीव्र भावानुभूति कराने में सहायक होते हैं और मानव हृदय का अधिक सशक्तता के साथ स्पर्श कर उस पर चिरस्थायी प्रभाव छोड़ते हैं । आलोच्य प्रबन्धों में केवल 'मधु बिन्दुक चौपई' और 'सूआ बत्तीसी' में प्रतीक चरित्रों का विधान है ।
१. चेतन कर्म चरित्र, पद्य ४०, पृष्ठ ५६
२. हिन्दी साहित्य कोश, पृष्ठ ४७१ ।
३० डॉ० केशरीनारायण शुक्ल : आधुनिक काव्य-धारा, पृष्ठ २१७ ।