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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
तेरी छींक सुनै जिते, करं न उत्तम काज । मूदे तुह दुर्गंध में, तऊ न आवै लाज ।'
मूलतः इन्द्रियों के शील-विवेचन में कवि का लक्ष्य उनकी हेयता को प्रकाशित करता रहा है । इन्द्रियजन्य सुख सुख नहीं है, वह निदान दुःख है। विषयादि में रत रहने के कारण वे मनुष्य को नरक-तुल्य वेदना से व्यथित किये रहती हैं । इन्द्रियों के माया-जाल में फंसकर वह अपने शुद्ध स्वरूप को भी भूल जाता है और उन्हीं की दासत्व शृंखलाओं में जकड़ा रहता है। मन, जो इन्द्रियों का राजा है, वह और भी अधिक पापी है । अतः इन्द्रियों की परतन्त्रता छोड़कर उसे चिरन्तन आत्मा की शरण स्वीकार करनी चाहिए जिससे उसे अनन्त और शाश्वत सुख उपलब्ध हो सके।
अन्य चरित्र
'चेतन कर्म चरित्र' में ज्ञान, विवेक, ध्यान, चारित्र, संतोष, धैर्य, दान, शील, तप आदि चेतन के हितैषी और सहायक पात्र हैं और उनका चित्रण चेतन के मित्र, सेनापति, सैनिक, सेवक आदि के रूप में हुआ है। राग, द्वेष, मोह, काम तथा अष्ट कर्म आदि चेतन के विरोधी हैं, जो उससे निरन्तर
१. पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य २५-३०, पृष्ठ २४१ । २. मन राजा कहिये बड़ी रे, इन्द्रिन को सिरदार ।
आठ पहर प्रेरत रहै रे, उपज कई विकार ॥प्राणी०।। मन इन्द्री संगत किय रे, जीव परै जग जोय । विषयन की इच्छा बढ़ रे, कैसें सिवपुर होय ।।
-वही, पद्य १३२-१३३, पृष्ठ २५० । ३. वही, पद्य १४३ से १४७, पृष्ठ २५१-२५२ । ४. ज्ञान भलाई जानके, मैं पठ्यो तोहि पास । चेतन का पुर छांडके, जो जीवन की आस ।
-वही, पद्य १०६, पृष्ठ ६६ । ५. वीर सुविवेक ने धनुष ले ध्यान का, मारिके सुभट सातों गिराये ।
-वही, पृष्ठ ६७, पद्य १२५ ।