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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
युद्ध में अनेक उत्थान-पतन आते हैं, किन्तु अन्त में वह शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है।
चेतन के चरित्रांकन में जैन कवियों की दृष्टि ऊोन्मुखी रही है। विषय-सुख सुख नहीं है, सच्चा सुख उससे परे है और उस सुख की उपलब्धि सम्यक दृष्टि और सम्यक् आचरण से ही सम्भव है। आत्मकालुष्य को धो डालो, उसे कर्म-पुद्गल से विमुक्त कर दो, बस यही चेतन (आत्मा) की सबसे बड़ी विजय और सबसे बड़ी उपलब्धि है । अज्ञानी जीव की अन्तरात्मा में जब तक ज्ञानालोक नहीं जगमगाता, तब तक वह अपनी शुद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं होता, यही चेतन चरित्र का सार है । चेतन के साथ ही मोह का चरित्र भी विवेचनीय है ।
मोह
मोह 'चेतन कर्म चरित्र' में प्रतिनायक का पद ग्रहण किये हुए है। वह चेतन का प्रतिद्वन्द्वी बनकर उससे अपने प्राण रहते संघर्ष करता है । क्रोध की स्थिति में उसके मुख से निःसृत गर्वोक्तियों में उसके चरित्र का चित्र सामने आ जाता है ।
१. चेतन कर्म चरित्र, पद्य २७६ से २८३, पृष्ठ ८२-८३ ।
अविचल धाम बसे शिवभूप । अष्टगुणातम सिद्ध स्वरूप ।। चरम देह परमित परदेश। किंचित ऊनी थित बिनभेश । पुरुषाक्षर निरंजन नाम । काल अनंतहि ध्र व विश्राम ॥ भव कदाच न कबहूँ होय । सुख अनंत विलस नित सोय । लोकालोक प्रगट सब वेदा । षट द्रव्य गुण पर्याय सुभेद ।। ज्ञयाकार सकल प्रतिभास । सहजहिं स्वच्छ ज्ञान जिहँ पास ॥
वही, पद्य २८४-८६, पृष्ठ ८३ । कहो बचन मेरो तुम जाय । क्योंरे अंध अधरमीराय । ब्याही तिय छांडहि वयों कूर । कहां गयौ तेरौ बल शूर ।। के तो पाय परहु तुम आय । के लरिबे को रहहु सजाय ॥
-वही, पद्य १४-१५, पृष्ठ ५६ ।