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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
पर तप के लिए जाते हैं । इस प्रकार नेमिनाथ के चरित्र में मानवीय दुर्बलताओं का आभास नहीं मिलता। उनके चरित्र में उदात्त गुणों का आविर्भाव है।
वस्तुत: जैन कवियों ने तीर्थंकरों को वीतरागी, जिन, जिनवर, जिनेन्द्र, प्रभु, ईश, त्रिभुवन-धनी आदि नामों से सम्बोधित करते हुए मानव के साथ ही अतिमानव या ईश्वर सिद्ध करते हुए भक्तों के आलम्बन रूप में चित्रित किया है । उन्होंने उनके चरित्र को अनेक अलौकिकताओं से भर दिया है, यथा-तीर्थंकर बिना शिक्षा और बिना अभ्यास समस्त विद्याओं और कलाओं में पारंगत हो जाते हैं। उनका शरीर स्वेद-मलरहित, अतुल बलशाली और एक सौ आठ लक्षणों से युक्त होता है । वे अपनी माता का पयपान नहीं करते आदि । यही अलौकिकता तीर्थंकरों के चरित्र में उस समय परिलक्षित होती है, जब माता के गर्भ में आते हैं तो माता को सोलह स्वप्न . दिखायी देते हैं, इन्द्र की आज्ञा से भूतल पर रत्नों की वर्षा होती है, गर्भ में आते ही सुर-रानियाँ माता की सेवा-परिचर्या के लिए आ जाती हैं, जन्मोपरान्त इन्द्र-इन्द्राणी आदि बालक को पांडक वन में स्नान कराने और अपने हाथों से शृंगार करने के लिए ले जाते हैं। इस प्रकार आलोच्य ग्रन्थकारों ने तीर्थंकरों को अतिशय-असाधारण-रूप में चित्रित किया है।
सारांश यह है कि तीर्थकर अपनी अनन्त विभूति और अनुभूति को आत्म-साधना का विषय बनाकर चिरन्तन सत्य के दर्शन के लिए आकुल रहते हैं । आत्म-शोधन के निमित्त राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि को हटाने में उनका पुरुषार्थ झलकता है । उनका सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक्
१. नेमीश्वर रास, पद्य १०३५-३६, पृष्ठ ६० । २. पार्श्वपुराण, पद्य २० से २४, पृष्ठ १०६ । ३. वही, पद्य ६३ से १००, पृष्ठ ८५-८६ । ४. वही, पद्य ८२ से १०, पृष्ठ ८४ । ५. नेमीश्वररास, पद्य ६७३ से ६८५, पृष्ठ ५० । '. वही, पद्य ७२४ से ७३४, पृष्ठ ४२-४३ ।