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चरित्र-योजना
१८६ प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर झुकता है, इसी में उसके चरित्र का उत्कर्ष प्रकट होता है।' महावीर के भक्त के रूप में उसकी भक्ति-भावना का औदात्य दृष्टिगोचर होता है। सुखानन्द कुमार __ 'शील कथा' के नायक सुखानन्द का चरित्र शील गुण से सम्पुटित है। वह न्याय-नीति में निपुण, पुण्यवान् पुरुष है। वह उद्यम को मानव का दूसरा विधाता मानकर अपनी चिन्तना-शक्ति का परिचय देता है। उसकी दृष्टि में उद्यमशील पुरुष लक्ष्मीवान् पुरुष से श्रेयस्कर है।
लक्ष्मी तो अति चंचल होय । याको पतियारी नहिं कोय । छिनमें राजा · छिनमें रंक । छिनमें निरमल छिनक कलंक ॥ जो नर लक्ष्मीवान हु होय । उद्यम कर जाने नहिं कोय । जब ही लक्ष्मी जाय विलाय । घर घर मांगत भीख बनाय ।।"
१. श्रेणिक चरित, पद्य ७७२ से ७६२, पृष्ठ ५-५५ । ___ धनि यह देस धनि विपुलाचल धनि मुझ पुण्य प्रभाइ । समोसरण आगम भगवंत तुम पवित्र भया सफलाइ ।
॥ श्री अरहंत महिमा अति बनी हो । तुम परसत भवि जीवन आतम लष, तुम सिव सुष दातार ।। धनि भौ नेत्र देष्या बीतराग जिन देवांगना नृत अधिकार ॥
॥ श्री अरहंत महिमा अति बनी हो । धनि भौ श्रबन सुन्या भाव जिन गुण धनि जिह्वा प्रभु स्तुति भास । धनि भौ चरण समोश्रण परसत कर धनि पूज्या आप पद दास ।।
॥ श्री अरहंत महिमा अति बनी हो ।
-वही, पद्य १२२३-२५, पृष्ठ ५७-५८ । ३. शील कथा, पृ० १५-१७ । ४. मैं उद्यम कीन्हों नहिं कोय । कैसे सुयश हमारो होय ॥
उद्यम है दूजो करतार । उद्यम दुःखविनाशनहार ।। उद्यम बिन नर रंक-समान । उद्यम है जग में परधान ।।
-वही, पृष्ठ २५। ५. वही, पृ० २७ ।