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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
(३) मानवीकृत;
(४) प्रतीकीकृत |
१. अतिमानव :
प्रबन्धकाव्यों में नियोजित अतिमानव चरित्र मानव चरित्रों से किसी-नकिसी प्रकार सम्बद्ध हैं । इनके चरित्र में अलौकिकताओं का समावेश होता है । मानव पात्रों के परिपार्श्व में इनकी उपस्थिति या तो उनके यश को फैलाने और उन्हें सुख-समृद्धि देने के लिए होती है या उनकी संकट में सहायता करने के लिए। इस प्रकार के चरित्रों में देव चरित्र उल्लेखनीय हैं ।
देव चरित्र
जैन - परम्परा में देव - शरीर रस रक्तादि से रहित और अद्भुत क्रांतियुक्त माना जाता है | उसे क्षुधा तृषादि का कष्ट कभी नहीं सताता, उसकी गति द्रुतिमयी होती है और स्वभाव से वह विभिन्न क्रीड़ाओं में आसक्त होता है । उसे प्राय: प्रत्यक्ष इन्द्रियों द्वारा नहीं देखा जा सकता है ।"
धार्मिक एवं साहित्यिक कृतियों में देवजातियों के चार भेद हैं : भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक । भवनवासी तथा व्यंतर प्रायः अधोलोक में, ज्योतिष्क मध्यलोक में तथा वैमानिक देव (जो देवों में प्रधान हैं) ऊर्ध्वलोक में रहते हैं । देवों के साथ अपनी-अपनी देवांगनाएं भी होती हैं जो रूप में अनुपम होने के साथ ही नाना कलाओं में दक्ष होती हैं । उपर्युक्त चारों निकायों के देवों में अपने-अपने निकायवर्ती समस्त देवों के अधिपति - स्वामी इन्द्र कहलाते हैं ।
२.
१. देखिए, उमास्वाति विरचित तत्त्वार्थ सूत्र - मोक्षशास्त्र (भाषा टीका सहित ), पृष्ठ १८७ ।
वही, पृष्ठ १८६ |
३. वही, पृष्ठ १६० ।