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चरित्र-योजना
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इन चरित्रों में गतिशीलता अधिक नहीं मिलती है । संघर्षात्मक परिस्थितियां इनके सामने नहीं आतीं, अतः इनके चरित्र का एकपक्षीय रूप स्थिर बिन्दु की भांति परिलक्षित होता है । उसमें मानसिक घात-प्रतिघात या जीवन की अधिक गतिविधियों का सन्निवेश नहीं है।
तीर्थकर
आलोच्य कृतियों में ऋषि-मुनि पात्रों की अपेक्षा तीर्थंकर पात्रों का अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है । जैन-साहित्य में ये चरित्र परम्परा से चले आये हैं और ये जैन-कवियों के विशेष आकर्षण के केन्द्र रहे हैं। इन कवियों ने तीथंकरों का असाधारण मानव के रूप में चरित्रांकन किया है । वे अवतारस्वरूप हैं । अपने पूर्व जन्मों की निरन्तर साधना के फलस्वरूप वे मनुष्यभव में आकर तप-बल से 'केवल ज्ञान' प्राप्त करने के उपरान्त अनन्त सुखवैभव एवं अन्तरंग लक्ष्मी के स्वामी बन जाते हैं ।
'पार्श्वपुराण', 'नेमीश्वररास', 'नेमिचन्द्रिका' (आसकरण), 'नेमिचन्द्रिका' (मनरंगलाल), 'नेमिनाथ चरित' प्रभृति काव्यों में तीर्थंकरों का चरित्र लगभग एक समान पद्धति पर निरूपित हुआ है । अन्तर मात्र इतना ही है कि 'पावपुराण' में तीर्थकर (पाश्वनाथ) के चरित्र का उसके पूर्व जन्मों से लेकर अन्तिम भव तक का विवेचन है और अन्य काव्यों में केवल अन्तिम तीर्थकर-भव का । ये तीर्थंकर माता के गर्भ में आते हैं, जन्म लेते हैं और अपने सौन्दर्य से देव-देवियों तक को लुभाते हैं, बचपन में नाना क्रीड़ाएं करते हैं, नववय में ही अन्तर्मुखी रहते हुए संसार से वैराग्य लेकर कठोर तप करते हुए 'केवल ज्ञान' प्राप्त करते, संसारी जनों को धर्मोपदेश देते और अन्त में निर्वाण-लाभ प्राप्त करते हैं ।
पार्श्वनाथ
जैनों के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का शील विवेचन 'पार्श्वपुराण' में मिलता है। उनका बालरूप-सौन्दयं मनोमुग्धकारी है। उनके शरीर की कान्ति कोटि-कोटि सूर्यो की छबि को क्षीण कर देने वाली है । जब इन्द्र भी