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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान और निर्वाण के अवसरों पर ही इन्द्र भक्तिभावना से प्रेरित होकर स्वर्ग से भू पर उतरते हैं।'
सारांश यह है कि इन्द्र को अपूर्व दैवी शक्ति, अलौकिक चमत्कारों से युक्त, अतिमानव एवं तीर्थंकरों के भक्त-रूप में चित्रित किया गया है। इन्द्र के साथ हम इन्द्राणी को भी विस्मत नहीं कर सकते हैं।
इन्द्राणी
समीक्ष्य प्रबन्धों में 'पार्श्वपुराण' में ही इन्द्राणी के चरित्र का विशेष उल्लेख मिलता है। वह कोमलता और कमनीयता की साक्षात् देवी है । उसकी गति, संचार, क्रियाकलापों आदि में सहज रमणीयता और सम्मोहन शक्ति है जिसकी प्रतीति हमें पार्श्वनाथ के 'जन्म-कल्याण' के समय होती है। उनके जन्म के समय शची भक्ति-भाव से प्रेरित होकर वहाँ आती है, रंजित मुद्रा और गुप्त रीति से उनके जन्म-स्थान पर पहुंचती है, पुत्र सहित माता को प्रणाम करती और प्रदक्षिणा देती है और इस प्रकार उनकी भक्ति में लीन रहती हुई जो-जो कार्य-व्यापार सम्पादित करती है, उनकी विशिष्टता की कोई समता नहीं हो सकती :
सूत रागरंगी सुख सेज मांझ । ज्यों बालक भानु समेत सांझ । कर जोरि जुगल सिर नाय नाय । थुति कीनी बहु जानै न माय ॥३३॥ सुख नींद रची तब सची तास । मायामय राख्यौ पुत्र पास । कर कमलन बालक रतन लीन । जिन कोटि भानु छबि छीन कीन ॥३४॥ सुख उपजे जो प्रभु परस देह । कवि वानी गोचर नाहि तेह । प्रभु को मुख वारिज देख देख । हरखै सुर रानी उर विसेख ॥३५॥
पाठक को 'पार्श्वपुराण' में शची के चरित्र पर कुछ 'छींटाकशी' सी प्रतीत
१. (क) नेमिचन्द्रिका, पृष्ठ ४-५ ।
(ख) नेमीश्वररास, पद्य १०८६, पृष्ठ ६३ । पार्श्वपुराण, पृष्ठ ६७ ।,