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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
होती है ।' कवि की दृष्टि ऐसे स्थलों पर जाकर रमती है और कथा में रस-सृष्टि के लिए नाना दृश्यों को रूप देती है ।
कथा के मध्य स्थल-स्थल पर जो आवश्यक विराम दिये जाते हैं, वे इन्हीं मार्मिक परिस्थितियों के चयन के लिए । इस प्रयोजन से कथा में जो विराम पाये जायें, वे काव्य के औदात्य एवं उत्कर्ष के लिए आवश्यक समझे जाने चाहिए। कौन कवि अपने प्रबन्धकाव्य में कितने मार्मिक स्थलों की अवलारणा कर सका है, सच पूछा जाये तो यही उसके काव्य की सफलता की कसौटी है । इस कला में निपुणता का श्रेय सहृदय एवं भावक कवि को ही मिलता है । भावुक कवि ही ऐसे तलस्पर्शी स्थलों के अन्तर में जाकर पैठता है, पात्रों को तदनुकूल परिस्थितियों में डालता है और उनके साथ अपने हृदय का सम्बन्ध जोड़कर तथा मानव-जीवन की अनेक दशाओं के साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित कर ऐसे भाव-मुक्ताओं को चुनकर प्रत्यक्ष करता है, जिनकी कान्ति न कभी मिटती है और न कभी फीकी पड़ती है, मानो उनका सौन्दर्य शाश्वत और देश-काल की सीमाओं से परे है।
दृश्यों की स्थानगत विशेषता
प्रबन्धकाव्य में जहाँ कथा का बन्धान और गम्भीर मार्मिक स्थलों का विधान आवश्यक होता है, वहाँ देश (स्थान), काल के अनुरूप दृश्यों की योजना भी आवश्यक होती है । 'जो प्रबन्ध-कवि दृश्यों के स्थान और उनकी विशेषता को ध्यान रखे बिना ही वर्णन कर डालता है, वह प्रबन्ध के उत्कर्ष
. रामचन्द्र शुक्ल : जायसी ग्रन्थावली, भूमिका, पृष्ठ ६६ । __मार्मिक परिस्थितियों के विवरण और चित्रण के लिए घटनावली का
जो विराम पहले कह आये हैं वह तो काव्य के लिए अत्यन्त आवश्यक विराम है क्योंकि उसी से सारे प्रबन्ध में रसात्मकता आती है, पर उसके अतिरिक्त केवल पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिए, केवल जानकारी प्रकट करने के लिए, केवल अपनी अभिरुचि के अनुसार असम्बद्ध प्रसंग छेड़ने के लिए या इसी प्रकार की और बातों के लिए जो विराम होता है वह अनावश्यक होता है।
-वही, पृष्ठ ७५ ।