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प्रबन्धत्व और कथानक - स्रोत
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४.
भाई कमठ को दण्ड दिया जाना, ' भूताचल पर्वत पर दोनों भाइयों के मिलने के अवसर पर कमठ द्वारा मरुभूति की हत्या, वज्रघोष हस्ती का हृदय-परिवर्तन, राजा वज्रनाभि का वैराग्य, पार्श्वनाथ के तपस्वी जीवन के कष्ट और उनमें अविचल रहना' आदि । उन स्थलों का कवि ने सहृदयतापूर्वक वर्णन किया है ।
'नेमीश्वर रास' में समुचित रसात्मक स्थलों का विधान है । कथा के मध्य जो विराम आये हैं, वे इन्हीं स्थलों की सृष्टि के लिए । मानवभावनाओं, संवेदनाओं, सुख-दुःख के विविध रूपों के अन्तर में कवि ने प्रवेश किया है और उन भावों को उसने इस ढंग से प्रत्यक्ष किया है कि पाठक उनमें अधिक समय तक डूबने-उतराने के लिए विवश हो उठता है ।
महाभारत के युद्ध में जब दोनों पक्षों की सेनाएँ समर भूमि में आ खड़ी होती हैं, तब कुन्ती और कण में जो संवाद हुआ है, वह हमारे अन्ततल की धरा को छूने में पूर्ण समर्थ है । कुन्ती कर्ण से कहती है, बेटा कर्ण ! तू मेरा पुत्र है, मैं तेरी माँ हूँ । तू सोच-समझ । कर्ण माँ के वचनों को सुनकर एक साथ ही हर्ष और शोक से विह्वल हो उठता है । उसके अन्तर का द्वन्द्व चरमोत्कर्ष पर जा पहुँचता है । उसकी आत्मा काँप उठती है । वह गम्भीरता से सोचता है कि मैं माता के स्नेह को ठुकरा दूँ या स्वामि-भक्ति को । अन्त में वह निर्णय लेते हुए रुँधे हुए कण्ठ से माँ से कहता है— माता सुनो ! यदि मैं आपका ऋण चुकाऊँ तो स्वामी का ऋण मेरे सिर पर रह जायेगा । दुनिया मुझे नमक हरामी कहेगी। मुझे क्षमा करो। मैं मगधेश का सेवक | अतः आप जो चाहती हैं, वह मुझसे नहीं बन सकेगा ।
१. पार्श्वपुराण, पद्य ६० से ९६, पृष्ठ १२ |
२.
वही, पद्य १०८ ११५, पृष्ठ १४ ।
३. वही, पद्य २२ से २६, पृष्ठ १८ ।
४. वही, पद्य ७६ से ८३, पृष्ठ
वही, पद्य १८ से २३, पृष्ठ ६. नेमीश्वर रास, पद्य ८१७ से
५.
३४-३५ ।
१२३ । ८२१, पृष्ठ ४८ ।