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प्रबन्धत्व और कथानक-स्रोत अब ताही अरण्य के माहीं। ऐसे जो विलाप कराहीं ॥ हा तात कहा तुम कीनो । मेरो न्याय निवेर न लीनो ॥ हा मात उदर तें धारी। मोकों नवमासमंझारी ।। छिनमें तुम छोड़ि दई जू । करुणा नहिं नेक भई जू । हा भ्रात कहा तोहि सूझी। मेरी बात कळू नहिं बूझी ॥
ऐसो रुदन कियो बहु ताने । पशु पंछी सुन कुम्हलाने ॥ सिंहादिक पशु जो होई । अति दुष्ट स्वभावी सोई ॥ ते भी अति रुदन करावें । आँसू बहु नैन बहावें ॥'
इस स्थल पर कवि की भावुकता अनेक धाराओं में फूट पड़ी है। यहाँ उसकी भावुकता गम्भीर रूप लेकर उभरी है । नारी की वियोगावस्था को पहचानने में उसने असाधारण कौशल का परिचय दिया है । यहाँ उसने पात्र को ऐसी परिस्थिति में डाला है जिससे विप्रलंभ की सुन्दर व्यंजना हो सकी है।
'नेमिनाथ मंगल' में एक स्थल पर ऐसे प्रसंग की उद्भावना हुई है जहाँ कृष्ण और नेमीश्वर दोनों का पावन हृदय भाई-भाई के प्रेम से भर उठा है । कृष्ण राज्य-सिंहासन पर बैठना नहीं चाहते और नेमिनाथ उन्हें उस पर बैठाने के लिए आतुर हो उठते हैं :
अरी तब हरि को सीस उठायौ हाँ । अरी भाई कू कंठ लगायौ हाँ । अरी गहि बांह सभा में ल्याए हाँ। अरी तब सिंहासन बैठाये हाँ॥
'बंकचोर की कथा', 'आदिनाथ बेलि', 'मधुबिन्दुक चौपई', 'पंचेन्द्रिय
१. शीलकथा, पृष्ठ ३७-३८। २. नेमिनाथ मंगल ।