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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
कुंदन सो जरित जराइ राषे हेमनाल मढ़ाइया । आन द्वारे करे ठाढ़े नेम कुमर चढ़ाइया || बाजे निसान मृदंग ढोलक भेर तुरी दस दिसा झष बांधि रार्ष घोर पुरहि
सहनाइया । लगाइया ||
(ख) अरी कोई सुरंग तुरंग नचावै हां । अरी कोई हाथीन पै चढ़ि चाले हां ॥ अरी कोई रथ ऊपर सोहै हां । अरी कोई गज ऊपर जगमोहै हां ॥
'पंचेन्द्रिय संवाद' में विशेषता संवादों की है । उसमें वस्तु व्यापारवर्णन अभावग्रस्त हैं । उसकी कथावस्तु का विकास भी प्रायः संवादों के माध्यम से हुआ है । अधिकांश संवाद संतुलित और प्रसंगानुकूल हैं । उनमें वस्ती है और वस्तु स्थिति पर प्रकाश डालने की क्षमता है ।
किन्तु कुछ वर्णन असंतुलित और बलपूर्वक व्यर्थ ऊपर से ठू से हुए प्रतीत होते हैं । ऐसे वर्णनों में वर्णन आगे और दृश्य पोछे रह गये हैं, साथ ही कथावस्तु सहज विकास में बाधक हैं ।
दृश्यों की स्थानगत विशेषताओं के संदर्भ में उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट विदित होता है कि उनमें दोनों ही प्रकार के वर्णनों (मौलिक और रूढ़) का सन्निवेश हुआ है । मौलिक दृश्य प्रायः हृदयस्पर्शी हैं । रूढ़ वर्णनों में मौलिक दृश्यों जैसी कवि की सूक्ष्म ग्राहिणी शक्ति का स्फुरण दिखायी नहीं देता है । अधिकांशतः दोनों ही प्रकार के दृश्य उपयुक्त और परिस्थितिजन्य हैं, कथा-विकास और प्रबन्ध निर्वाह में सहायक हैं । रूढ़ वर्णन चाहे स्थूलता लिए हुए हैं, लेकिन ऊपर से चिपकाये हुए-से प्रतीत नहीं होते,
१. नेमिनाथ मंगल, पृष्ठ ३ ।
२. वही, पृष्ठ ३ ।
4.
(क) पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य ५४ से ६५, पृष्ठ २४४ ।
(ख) वही, पद्य ९६ से १०७, पृष्ठ २४७-४८ ।