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प्रबन्धत्व और कथानक - स्रोत
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यद्यपि उनमें मौलिक वर्णनों जैसी मार्मिकता नहीं है । अधिकतर काव्यों में प्राकृतिक दृश्यों का समावेश विरल रूप में ही उपलब्ध होता है ।
निष्कर्ष
प्रबन्धत्वकी परीक्षा के उपर्युक्त मानवदण्डों के आधार पर 'नेमिचन्द्रिका' ( आसकरण ), 'नेमिचन्द्रिका' ( मनरंगलाल ), 'राजुल पच्चीसी', 'सीताचरित', 'नेमीश्वर रास', 'रत्नपाल रासो', 'शीलकथा', 'नेमिनाथमंगल', "नेमिब्याह', 'पार्श्व - पुराण', 'श्रेणिक चरित' आदि प्रबन्धकाव्य प्राय: पूरे उतरते हैं । 'यशोधर चरित', 'बंकचोर की कथा', 'चेतनकर्म चरित्र', 'दर्शन कथा', 'आदिनाथ वेलि', 'पंचेन्द्रिय-संवाद' आदि काव्यों में यद्यपि मार्मिक स्थलों का अभाव है, फिर भी उनके सफल प्रबन्धत्व पर प्रश्न-चिह्न नहीं लगाया जा सकता । इसी प्रकार 'शतअष्टोत्तरी', 'नेमिराजुल बारहमासा संवाद' आदि काव्यों का कथात्मक संगठन उत्तम कोटि का न होने पर भी उनका प्रबन्धत्व अक्षुण्ण रहा है ।
(ख) कथानक - स्रोत
आलोच्य काव्यों को प्रबन्धत्व की परीक्षा के आधार पर देख चुकने के उपरान्त उनके कथा-स्रोत पर भी विचार कर लेना उचित होगा । इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि प्रबन्ध की सामग्री नयी होना आवश्यक नहीं है, उसकी योजना में नवीनता की आवश्यकता है । यदि कवि प्रबन्धपटुता से काम ले तो एक ही कथानक को लेकर कितने ही सफल प्रबन्धकाव्यों की सर्जना सम्भव है |
हमारे कवियों ने अपने काव्यों के कथानक - स्रोत अनेक स्थानों से ग्रहण किये हैं । उन्होंने प्राय: प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश के जैन प्रबन्धकाव्यों, पुराणों, कथा- कोषों एवं ऐहिक इतिवृत्तों से आख्यान, कुन्द- कुन्द, समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्द, नेमिचन्द्र, हेमचन्द्र आदि के विशिष्ट, ग्रन्थों से जीवनदर्शन; जैन स्तोत्र - स्तवन, दशभक्ति और हिन्दी के भक्तिकाल से भक्तिस्तुति तत्त्व तथा रीतिकाल से अलंकरण तत्त्व ग्रहण कर काव्य कृतियों का प्रणयन किया है ।
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