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जैन कवियों के व्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
(शीलंकाचार्य), 'नेमिनाह चरियं' (मलधारी हेमचन्द्र), 'नेमिनाथ चरित' (सूराचार्य), 'नेमिनाथ चरित' (सकलकीति), 'नेमीश्वर रास' (ब्रह्मरायमल्ल) आदि।
किन्तु विवेच्य कृति के प्रणेता का प्रयास इन घटनाओं के संक्षिप्तीकरण के साथ ही इनमें भावात्मक प्रतिष्ठा की ओर रहा है । उसका आरम्भ भी नाटकीय ढंग से किया गया है।
'नेमिचन्द्रिका' (आसकरण), 'नेमिचन्द्रिका' (मनरंगलाल), इन दोनों का कथानक प्रख्यात है। इनमें तीर्थंकर नेमिनाथ के चरित्र पर अधिक मर्मस्पर्शिता से प्रकाश डालने वाले प्रसंगों-विवाह, वैराग्य और राजुल के वियोग को अधिक विस्तार दिया गया है। इन दोनों रचनाओं के कथानक परम्परागत होते हुए भी मौलिकता से ओत-प्रोत हैं और इनमें उनके प्रणेताओं के प्राणों का स्पन्दन रस का स्रोत बनकर प्रवाहित हुआ है।
विनोदीलाल कृत "राजुल पच्चीसी' की कथावस्तु 'मिश्र' श्रेणी के अन्तर्गत आती है । यद्यपि इसके कथानक का मूल बिन्दु पौराणिक है, किन्तु उसमें कल्पना तत्त्व की प्रचुरता है । उससे पूर्व के किसी काव्य में नेमिनाथ की प्रिया राजुल को नारी नायक के रूप में प्रतिष्ठित कर उसके चरित्र को इतने उत्कर्ष तक नहीं पहुंचाया गया । राजुल को इस रूप में चित्रित करने का श्रेय कवि विनोदीलाल को ही है जिन्होंने राजुल को नारी जाति का शिरोभूषण बना दिया। इस कृति में कवि ने आद्यंत गीति शैली का आश्रय लेकर और भावात्मक गहराई देकर अद्भुत रमणीयता भर दी है। यह काव्य कवि की मौलिक सृजन की क्षमता की साक्षी देता है।
इसी कवि के 'नेमिनाथ मंगल', 'नेमि ब्याह' और 'नेमि-राजुल-बारहमासा संवाद' काव्यों के कथानक थोड़े अन्तर के साथ एक-से ही हैं, फिर भी इनमें तीर्थंकर नेमिनाथ के जीवन की घटनाओं के अंकन में परम्परा के प्रति कवि का इतना आग्रह दिखायी नहीं देता, जितना नवीनता के प्रति । इन तीनों ही काव्यों में नव्यता की भूमिका सुदृढ़ है। कवि की अतिशय भावुकता, कल्पना-प्रवणता एवं भावाभिव्यंजना की विभिन्नता ने इनके