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प्रबन्धत्व और कथानक - स्रोत
कुंकुमादि लेपन बहु लिये । प्रभु के देह विलेपन किये ॥ इह सीमा इस औसर माँझ । किधों नीलगिरि फूली साँझ || और सिंगार सकल सह कियौ । तिलक त्रिलोकनाथ के दियो || मनिमय मुकुट सची सिर धर्यो । चूड़ामनि माथे विस्तर्यो ॥ लोचन अंजन दियौ अनूप । सहज स्वामिदृग अंजित रूप || मनि कुंडल कानन विस्तरे । किधों चंद सूरज अवतरे ॥
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यह इन्द्राणी द्वारा बालक पार्श्वनाथ को अलंकृत करने का चित्र है । बालक पार्श्व राजपुत्र है और राजपुत्र का रत्नादि बहुमूल्य आभूषणों से सजाया जाना अस्वाभाविक नहीं, यद्यपि यहाँ इन्द्राणी की उपस्थिति के कारण अलौकिकता का सन्निवेश हुआ है । अवतारादि की सेवा में अलीfor शक्तियों की उपस्थिति जन विश्वास के अनुकूल है । अतः उक्त दृश्य की प्रस्तुति कथा - योजना, प्रबन्ध निर्वाह, स्थल और परिस्थिति से पूर्णतः मेल खाती है |
इसी प्रकार स्वर्ग-नरक' के दृश्य काल्पनिक हैं किन्तु लोक विश्वास के
१.
पार्श्वपुराण, पद्य ७६ से ७८, पृष्ठ १०१ ।
२. चंपक पारिजात मंदार । फूलन फैल रही महकार ॥ चैत बिरछते बढ़यो सुहाग | ऐसे सुरग रबाने बाग || विपुल वापिका राजैखरीं । निर्मल नीर सुधामय भरीं ॥ कचन कमल छई छबिवान । मानिक खंडखचित सोपान ॥
- वही, पद्य १८४ - १८५, पृष्ठ ७० । ३. केई रक्त चुवाव तन, विहवल भाजें ताम | पर्वत अन्तर जायके, करें बैठि विसराम ॥ तहाँ भयानक नारकी, धारि विक्रया भेख । बाघ सिंह अहि रूपसों, दारें देह विसेख || केई करौं पाँय गहि, गिरसौं देहिं गिराय । परें आन दुर्भूमि पर, खंड खंड हो जाय ॥ दुख सों कायर चित्तकरि, ढूंढ़े सरन सहाय । वे अति निर्दय घातकी, ये अति दीन घिघाय ॥
- वही, पद्य १७६ से १७६, पृष्ठ ४२ ।