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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
अनुरूप उनका एक स्वरूप होता है । स्वर्ग सुखमय उपादानों का और नरक वेदना तथा धृणा का संसार होता है। प्रबन्धकार इस विश्वास पर आधृत इनके स्वरूप की अवहेलना प्रायः नहीं करता है । इस ओर पार्श्वपुराणकार भी सजग रहा दिखायी देता है । पार्श्वपुराण में आकलित वर्णन विस्तृत होते हुए भी रस के स्रोत हैं।
गजरूप चेष्टाओं एवं क्रीड़ाओं का दृश्य चित्रोपम और स्थानीय विशेषताओं (लोकल कलर) से युक्त होने के कारण बहुत ही सरस बन पड़ा है :
अति उन्नत मस्तक सिखर जास । मद-जीवन झरना झरहिं तास ॥ दीस तमवरन विसाल देह । मनों गिरिजंगम दूसरो येह ।। जाको तन नखसिख छोमवंत । मुसलोपम दीरघ धवल दंत ॥ मदभीजे झलकें जुगल गंड । छिन छिन सों फेरै सुंड दंड ॥ कबही बह खंडे बिरछ बेलि । कबही रजरंजित करहि केलि ॥ कबही सरवर में तिरहि जाय । कबही जल छिरक मत्तकाय ॥ कबही मुख पंकज तोरि देय । कबही दह-कादो अंग लेय ॥'
इसी प्रकार वन-वर्णन भी संक्षिप्त किन्तु सरस है : अति सघन सल्लकी बन विशाल । जहं तरुवर तुंग तमाल ताल । बहु बेलजाल छाये निकुंज । कहिं सूखि परै तिन पत्रपुंज ।। कहि सिकताथल कहिं सुद्ध भूमि । कहिं कपि तरुडारन रहे झूमि । कहिं सजलथान कहिं गिरि उतंग । कहिं रीछ रोज विचरे कुरंग ॥
यह वन का स्वाभाविक वर्णन है जिसकी योजना परिस्थिति-निर्माण के लिए की गयी है । यहाँ कवि वन के प्राकृतिक वैभव को भली-भांति संजोने में सफल रहा है । ताड़-तमाल के लम्बे वृक्षों, लताओं से आच्छादित निकुंजों, सूखकर गिरे हुए पत्र-पुंजों, धूल भरे और साफ-सुथरे मैदानों, वृक्षों
५. पार्श्वपुराण, पद्य ५ से ६, पृष्ठ १६ । ३. वही, पृष्ठ १६ ।