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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
संवाद', 'शत अष्टोत्तरी', 'दर्शन कथा', 'निशि भोजन कथा' आदि खण्डकाव्यों में मार्मिक स्थलों की संयोजना समुचित प्रकार से नहीं हो पायी है । यद्यपि उनमें प्रबन्ध - शैथिल्य तो दृष्टिगोचर नहीं होता, परन्तु रसात्मक स्थलों का अभाव अवश्य ही परिलक्षित होता है । उनमें कथा के मध्य विराम भी नाममात्र को ही उपलब्ध होते हैं । उनके प्रणेताओं की दृष्टि इतिवृत्तात्मक एवं वर्णनात्मक पक्षों की ओर अधिक रही है ।
आलोच्य प्रबन्धकाव्य और दृश्यों की स्थानगत विशेषता
'पार्श्वपुराण' में कवि ने प्रायः दृश्यों के स्थान और उनकी विशेषताओं को ध्यान में रखकर वर्णनों की योजना की है । काव्य में विविध वस्तु - वर्णनों, जैसे द्वीप, नगर, मंदिर, समवशरण', पुरुष - स्त्री रूप, बाल- शृंगार, ल-क्रीड़ाओं, पंच कल्याणकों, तप, स्वर्ग-नरक, वन-बाग आदि कितने ही हृदयग्राही वर्णनों का समावेश है । बाल - शृंगार - वर्णन कवि की कला - त्मकता से सम्पुटित है :
बाल
१.
२.
तहाँ नगर पोदनपुर नाम । मानों भूमितिलक अभिराम || देवलोक की उपमा धरं । सब ही विध देखत मनहरें ||
बाग गृह-पांति ||
पुर बहुभांति ||
तुंग कोटि खाई सजल, सघन चौपथ चौक बजारसों, सोहै ठाम ठाम गोपुर लसैं, वापी किधों स्वर्ग ने भूमिकौं, भेजी भेंट अनूप ॥
सरवर
कूप ॥
- पार्श्वपुराण, पद्य ४७ से ४६, पृष्ठ ७ ।
क) तीर्थकरों के उपदेश का स्थल ।
(ख) विविध वरन सों वलयाकार । झलके इन्द्र धनुष उनहार ॥ कहीं स्याम कहिं कंचन रूप । कहिं विद्रुम कहि हरित अनूप ॥ समोसन लछमी को एम । दिप जड़ाऊ कुडल जैम ॥ चारों दिसि तोरन बन रहे । कनक थंभ ऊपर लहलहे ॥
३. वही, पद्य १७ से १६, पृष्ठ १०८ ।
४.
गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान और निर्वाण |
- वही, पृष्ठ १२८ |