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प्रबन्धत्व और कथानक-स्रोत
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चल्यो कुवर माता सुन्यौ, अति दुष करै निस्वामि । नैन झरे, उर ऊमस, आकुलवंत उदासि ।। तो विन सूनो मो मंदिर कुल दीपक तू बाल । म्हारो कोई पूर्वक्रम उदै भयो आज ततकाल ॥ पुत्र विछोह मुझ थकी, सह यौ जाहि नहिं मोहि । ऐसो करम कहा कीयौ, ताथै कुवर विछोहा होहि ॥
मार्मिक स्थलों की योजना के विचार से 'शीलकथा', नेमिचन्द्रिका' (आसकरण), 'राजुलपच्चीसी', 'नेमिब्याह', 'नेमिचन्द्रिका' (मनरंगलाल), 'नेमिनाथ मंगल' आदि खण्डकाव्य अच्छे बन पड़े हैं । इन काव्यों में ऐसे अनेक रसात्मक स्थलों का विधान है जो अपनी भावात्मक गहराई के कारण स्वतः ही हमारे अन्तर्जगत को छूने में समर्थ हैं । इन काव्यों में आधिकारिक कथावस्तु के साथ प्रवाहित भावक की विचारधारा विराम लेकर भावात्मक तल्लीनता का अनुभव करती है।
_ 'नेमिचन्द्रिका' (आसकरण) में कवि की भावुकता ने इतिवृत्तात्मक या वर्णनात्मक अंशों की योजना को इतना महत्त्व नहीं दिया जितना कि रसमय स्थलों की योजना को । उदाहरणार्थ, नेमिनाथ का राजुल के साथ पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न नहीं हो सका। इससे पूर्व ही वे पशुओं के विलाप से उद्विग्न होकर गिरिनार पर्वत पर तप के लिए चले गये । विह्वल राजुल मूच्छित होकर धराशायी हो गयी । चेतना आने पर वह भी उन्हीं के पीछेपीछे एकाकी चल दी। भावों के लहराते हुए प्रखर ज्वार को हृदय में समेटकर निर्जन वन-पथ में चलते हुए विलाप मिश्रित उसके स्वर का आरोह-अवरोह, उसके दीर्घ उच्छ वास और वन-पक्षियों आदि के रोदन से आप्लावित इस मार्मिक स्थल की गहराई देखिए :
अहो कंथ किनि सुनहु पुकार, मैं डूबति हौं दुख की धार । नेक न चितवत काहे धीर, कहा करों को हरिहै पीर ॥
१. श्रेणिक चरित, पृष्ठ १० ।