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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
प्रासंगिक घटना के द्वारा माता के वियोगी हृदय के उद्घाटन के साथ ही साथ शिवदेवी, कृष्ण और नेमिनाथ के शील विवेचन में सहायता प्रदान की है।
'चेतन कर्म चरित्र', 'पंचेन्द्रिय संवाद' के पद्यों की योजना में पूर्वापर क्रम का निर्वाह है । इन काव्यों की कथावस्तु का सफलतापूर्वक गठन एक विशेष पद्धति पर हुआ है । कथात्मक बन्धन में चारुता है।
'शतअष्टोत्तरी' काव्य का कथानक बहुत व्यवस्थित नहीं है। उसमें प्रवाह कम और स्थैर्य अधिक दृष्टिगोचर होता है। सुबुद्धि रानी ने अपने प्रियतम चेतन (कथा नायक) को माया रानी से अलिप्त रहने के लिए उपदेशों, सम्बोधनों एव प्रबोधनों आदि के साथ भर्त्सनाओं की इतनी लम्बी झड़ी लगा दी है कि कथा में गतिरोध का आभास-सा मिलता है।
ऊपर आलोच्य प्रबन्धकाव्यों को प्रबन्धत्व के एक बिन्दु 'सम्बन्ध-निर्वाह' के प्रकाश में देखने का प्रयास किया गया है । इतिवृत्तात्मक होने के कारण प्रायः चरितात्मक काव्यों में दार्शनिक एवं भावात्मक काव्यों की अपेक्षा कथा का प्रवाह सर्वत्र उचित मात्रा में मिलता है । दार्शनिक या आध्यात्मिक वर्ग में आने वाले काव्यों में से 'चेतन कर्म चरित्र' और 'पंचेन्द्रिय संवाद' में कथा का सम्बन्ध-निर्वाह सफल और 'शतअष्टोत्तरी' का शिथिल दिखायी देता है । भावात्मक काव्यों के अन्तर्गत रखे जाने वाले 'बारहमासा काव्यों' में कथा का आरम्भ और अन्त अकस्मात् हो गया है और मध्य विस्तार पा गया है। आगे चलकर अब विवेच्य प्रबन्धों को प्रबन्धत्व के दूसरे निकष के आधार पर देखना है कि वे कहाँ तक सफल हुए हैं।
आलोच्य प्रबन्धकाव्य और मार्मिक स्थल
'पार्श्वपुराण' में यद्यपि वर्णनात्मक अंशों के आधिक्य के कारण मानवहृदय के प्रसार के लिए विराट् भूमि नहीं मिल पायी, तथापि उसमें समूचित मार्मिक स्थलों का अभाव नहीं है । कवि ने कथा में आवश्यक विराम देकर ऐसे स्थलों को पहचाना है, यथा-राजा अरविन्द द्वारा मरुभूति के