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प्रबन्धत्व और कथानक-स्रोत
___ काव्य के सुन्दर गठन से कवि की प्रबन्धपटुता का परिचय मिलता है । कथा के मध्य उसने इतिवृत्तात्मक एवं रसात्मक स्थलों को पहचाना है। उसने काव्यारंभ की थोड़ी-सी पंक्तियों में सीता के निर्वासन की भूमिका तैयार कर, कथा को ठीक-ठीक गति देकर तथा उसमें आकलित घटनाओं को पारस्परिक सम्बन्ध-सूत्र में गूंथकर अच्छे प्रबन्ध-कवि का परिचय दिया है।
'श्रेणिक चरित' (लक्ष्मीदास) की कथा अध्यायों या सर्गों में विभक्त न होकर चउवन ढालों में विभक्त है। काव्य में प्रयुक्त ढाल और ढाल के पद्य परस्पर सम्बद्ध हैं। कथा में उचित गति है, कहीं भी शैथिल्य नहीं है। इसमें वर्णनात्मकता कम और भावात्मकता अधिक है । वस्तु-विन्यास के आधार पर कृति सफल है।
लक्ष्मीदास कृत 'यशोधर चरित' की कथावस्तु का उचित विभाजन संधियों में हुआ है। वस्तु-विधान में कवि ने प्रज्ञाशीलता का परिचय दिया है और विविध घटनाओं को एक शृखला में जोड़कर उन्हें अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचाने का प्रयास किया है। फिर भी चरित्रों की पूर्व भवावलियों (जन्मों) के कार्यकलापों के विवेचन से अनेक स्थलों पर कथावस्तु जटिल और बोझिल हो गयी है, जिससे पाठकों को बुद्धि का आश्रय लेना पड़ता है और इस प्रकार स्वाभाविक रसास्वादन में वाधा उपस्थित होती है । कथा के भीतर कथा के विनिवेश एवं प्रासंगिक कथाओं के आधिक्य से पाठक
१. सेठ वस्यौ पुर आइ, हो भाई सेठ बस्यौ पुर आइ । ता सुत को पाले दोऊ भामिनि, हितचित ते अधिकाइ।।
हो भाई सेठ बस्यौ पुर आइ ॥४४०॥ दोउ बराबर प्रीत मोह धरि गोदे खिलावे बाल । ऐसे कैइक दिन बीता पाछै सेठ खायौ काल ॥
हो भाई सेठ बस्यौ पुर आइ ॥४४१।। आपस में ते नारी दोऊ लड़ने लागी धाइ । एक कहै इइ सुत धन मेरौ दूजी कहै मेरो आइ ॥ हो भाई सेठ बस्यौ पुर आइ ॥४४२॥
-श्रेणिक चरित, पृष्ठ ३१-३२ ।