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प्रबन्धत्व और कथानक-स्रोत
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निर्वाह की कला में कुछ ही कवि कुशल कहे जा सकते हैं। इस प्रसंग में थोड़ा विस्तार से विचार कर लेना उचित होगा।
कवि भूधरदास विरचित 'पार्श्वपुराण' में कवि का प्रतिपाद्य विषय है : तीर्थंकर पार्श्वनाथ के सम्पूर्ण चरित्र का उद्घाटन और इसी हेतु उसने प्रबन्धकाव्य-रूप का आश्रय लिया है। काव्य की कथावस्तु नौ अधिकारों में विभक्त की गयी है। उसकी कथा में पूर्वापर कम का आदि से अंत तक निर्वाह है। कवि अनेक स्थलों पर कथात्मक प्रसंगों को अधिक विस्तार देकर और लम्बे वर्णनों में उलझकर भी सम्बन्ध-निर्वाह की रक्षा करने में समर्थ रहा है। कहीं-कहीं पाठक सम्बन्ध-सूत्र को टटोलने में बेचैन हो उठता है । कथानक में भग्न-दोष तो प्रतीत नहीं होता किन्तु उसके सन्तुलन पर प्रश्नवाचक चिह्न लगाया जा सकता है। कृति के अन्तिम नवम् अधिकार के लगभग तीन-चौथाई अंश की योजना अनावश्यक-सी लगती है, यद्यपि मूल कथावस्तु और नायक से उसका सम्बन्ध विच्छिन्न नहीं हो पाया
किसी भी कृति में नायक के पूर्व जन्मों की कथा की आयोजना पाठक के कुतूहल-वर्धन अथवा काव्य के लक्ष्य संधान की दृष्टि से कितनी ही उपादेय हो परन्तु इससे प्रबन्धात्मकता को ठेस लगती है। पार्श्वपुराणकार ने ऐसा ही किया है। उसने काव्य में नायक पार्श्वनाथ के अनेक पूर्व जन्मों की कथा को स्थान देकर पाठक को अपने मस्तिष्क पर जोर देकर कथासूत्र को जोड़ने का अवसर दिया है, जिससे काव्य के सहज रसास्वादन में व्याघात उत्पन्न हुआ है। प्रबन्ध की सफलता के लिए यह प्रक्रिया दोषपूर्ण न होते हुए भी निर्दोष नहीं कही जा सकती।
फिर भी यह कहना अनुचित होगा कि 'पार्श्वपुराण' सम्बन्ध-निर्वाह को कसौटी पर असफल काव्य है । एक वाक्य में, वह कतिपय अभावों को
१. पार्श्वपुराण, पद्य ३५ से ७०, पृष्ठ ३३-३४ । २. वही, पद्य २ से ६४, पृष्ठ ७६ से ८२। १. वही, पद्य २३ से २४१, पृष्ठ १४१ से १६६ ।