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प्रबन्धत्व और कथानक-स्रोत को एक भारी धक्का देता है। प्रत्येक स्थान की अपनी विशेषता होती है, उसका अपना प्राकृतिक वैभव होता है। इस मर्म को भुला देने से दृश्यवर्णन के साथ अन्याय होता है।"
इस बाह्य दृश्य-विधान का कारण यही है कि कवि अपने काव्य में एक ऐसे दिव्य संसार की झलक देना चाहता है, जो काल्पनिक होते हुए भी सत्य और वास्तविक प्रतीत हो । यदि कहा जाये कि काव्य वास्तविक जीवन का एक काल्पनिक किन्तु भव्य चित्र है, तो अनुचित न होगा। प्रबन्धकार पात्रों के चरित्र-चित्रण, क्रिया-कलाप, घटना-विधान आदि के लिए जिन दृश्यों का चयन करता है, वे कवि की ऐसी भाव-राशि से मंडित होते हैं कि दृश्य-वर्णन इस सृष्टि के मूर्त चित्र जैसे लगते हैं और भावुक कवि के हृदय में ये क्रीड़ित दृश्य भावक के हृदय पर स्थायी प्रभाव छोड़ने में समर्थ होते हैं।
दृश्य-निरूपण में कवि को सजग और सचेष्ट रहते हुए अनेक बातों का ध्यान रखना पड़ता है। सबसे पहले तो वह अपनी कल्पना में उन चित्रों या दृश्यों को सँवारता है, जिनका कि वर्णन उसे अभीष्ट है। फिर वह प्रत्येक दृश्य के विविध उपकरणों को एक क्रम में सजाता और उन्हें इतिवृत्तात्मकता से बचाकर उनमें रसात्मकता का पुट देता है । कवि इन दृश्यों की योजना में स्थान, काल, प्रसंग एवं परिस्थिति को भी दृष्टि में रखता है ताकि कोई दृश्य असम्बद्ध या अनर्गल प्रतीत न हो और वह हूबहू वैसा ही लगे, जैसा कि जीवन में अनुभव किया जाता है। अस्तु, प्रबन्धकाव्य में दृश्य-चित्रण इस प्रकार का होना चाहिए कि उसमें अवस्थित चित्र संश्लिष्ट एवं सजीव हों ताकि वे मानव-हृदय के साथ सामंजस्य दिखा सकें और बिम्बप्रतिबिम्ब भाव ग्रहण करा सकें । यही काव्य की सफलता का रहस्य है।
दृश्यों की स्थानगत विशेषता के प्रसंग में यह बात भी उल्लेखनीय है कि दृश्य-वर्णन प्रत्येक दृष्टिकोण से औचित्यपूर्ण होना चाहिए। बहुत से कवि दृश्य-वर्णन में अनेक वस्तुओं की लम्बी सूची देना नहीं भूलते, चाहे १. डॉ० सरनामसिंह शर्मा अरुण' : विमर्श और निष्कर्ष, पृष्ठ ७४ ।