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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
अनूदित प्रबन्धकाव्य (अठारहवीं शताब्दी)
अनुवाद का बड़ा भारी महत्त्व पूर्ववर्ती रचना के मूल भावों की कुशल अभिव्यंजना में है । काव्य का प्राण भाव है । भाव अपनी सफल अभिव्यक्ति के लिए सदैव आकुल रहता है और कला का आश्रय खोजा करता है । यदि कोई सफल अनुवादक कवि अतीत के अंधकार में आवृत अतुल एवं बहुमूल्य भाव - राशि को युग-भाषा और नूतन शैली में संजोकर लोक- हृदय को रससिक्त करने और किसी महत् आदर्श अथवा संदेश से अनुप्राणित करने का प्रयास करता है, तो उसका यह प्रयास स्तुत्य ही है और इसके साथ ही भाषा-शैली के अन्तर्गत ऐसी प्रतिभाओं के योगदान को उचित मान देना न्यायोचित है ।
आलोच्ययुग में जैन कवियों द्वारा पर्याप्त संख्या में अनूदित प्रबन्धकाव्यों का प्रणयन हुआ । प्रश्न उठता है कि इन कवियों ने अनुवाद का आश्रय क्यों लिया ? और क्यों अपनी प्रतिभा का इस दिशा में उपयोग किया ? बात यह है कि ये कवि पूर्ववर्ती भाषाओं में रचित उस प्रबन्धसम्पत्ति को भी प्रकाश में लाना चाहते थे, जो जन सामान्य की पहुँच से बाहर थी ।' इन्होंने धर्म-भावना से प्रेरित होकर ही ऐसा किया था, इसके अतिरिक्त इन्हें और किसी प्रकार की आकांक्षा नहीं थी ।"
१. नृप वरांग को चरित उदार । मूल ग्रन्थ अति कठिन मंझार । भाषा रचना जो अब होय । तो बाकों वाचे सब कोय || २ || X X X X भट्टारक श्री बर्द्धमान अति ही विसाल मति । कियो संस्कृत पाठ ताहि समझ न तुछ मति ॥ ताही के अनुसार अरथ जो मन में आयो । निज पर हित सुविचार 'लाल' भाषा करि गायौ ॥ ६६ ॥ - पाण्डे लालचन्द : वरांग चरित, सर्ग १२, पृष्ठ ८४ । लोभ लाभ गुण उर विषै, मैं नहि लह्यो लगार ।
ख्यात पूजमति टारि कै धर्म भावना धार ॥ ४६७४ ||
२.
- सेवाराम : शान्तिनाथ पुराण अधिकार १५, पृष्ठ १६१ ।