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जैन कवियों के व्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
को मूर्तरूप में इस प्रकार चित्रित किया गया है कि जनसाधारण
उन्हें सरलता से हृदयंगम कर सके। (३) अरूप का रूप-विधान करने वाली शैली में भावों को अभिव्यक्त
किया गया है। (४) संवादों की प्रधानता है। (५) इन में आत्म-स्वातंत्र्य के निमित्त आत्मा को अंधकार से आलोक
की ओर ले जाने का सर्वत्र प्रयास है । अष्ट कर्म, अविवेक, राग-द्वष, काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि आत्म-शत्र ओं पर विजय प्राप्त कराना ही इन काव्यों का उद्देश्य रहा है।
धार्मिक और नैतिक
यों तो हमारे कवियों के अधिकांश प्रबन्धकाव्यों में धर्म एवं नीति के अनेक तत्त्व यत्र-तत्र अनुस्यूत हैं, किन्तु इस वर्ग के अन्तर्गत उन्हीं को लिया गया है, जो विषय की दृष्टि से धार्मिक या नैतिक श्रेणी में आते हैं। कवि कोरे धर्म का या कोरी नीति का उपदेश देकर सुयश का भागी नहीं बनता । अत: वह अपनी अभीष्ट आत्माभिव्यक्ति के लिए एक विशिष्ट परिवेश का-साहित्य की एक विधा विशेष का-चयन कर उसे प्रभविष्णु बनाने का विधान रचता है। इस रूप-विधान के लिए प्रबन्धकाव्य विधा. साहित्य की अन्य समस्त विधाओं में शीर्ष पर है ।
. जैन साहित्य में धर्म या नीति विषयक प्रबन्धकाव्य अनेक हैं। आलोच्ययुग में ऐसे भी काव्य उपलब्ध होते हैं, जिनमें काल्पनिक कथा के माध्यम से धर्म या नीति के सारभूत तत्त्वों का निदर्शन है। इनमें धार्मिकता का आग्रह है और धर्म के आचारमूलक पक्ष पर विशेष बल है । जीवन के धार्मिक और नैतिक पक्ष को उद्घाटित करने वाली इन कृतियों में मानव की आचारात्मक सद्प्रवृत्ति, धार्मिक रीति-नीति एवं व्रत-उपासना
१. ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि ।