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प्रबन्धत्व और कथानक-स्रोत
(क) प्रबन्धत्व
प्रबन्ध का स्वरूप
'प्रबन्ध' शब्द में ही उसका स्वरूप समाहित है । 'प्रबन्ध' का 'प्र' विशिष्टताबोधक उपसर्ग है और 'बन्ध' उस तत्त्व का वाचक है जो अनेक पद्यों में सम्बन्ध-सूत्र पिरोता है, उन्हें परस्पर आबद्ध करता है । पद्यों का यह बन्धन कथा बन्धन है, अतएव 'बन्ध' एक तरह से कथा का पर्याय- सा हो जाता है । प्रबन्ध के लिए इस तरह किसी-न-किसी प्रकार का कथानक एक अनिवार्य तत्त्व हो जाता है । "
प्रबन्धकाव्य में चाहे वह महाकाव्य हो, एकार्थकाव्य या खण्डकाव्य 'किसी वस्तु का श्रृंखलाबद्ध वर्णन होता है । उसमें आरम्भ से अन्त तक किसी प्रख्यात अथवा काल्पनिक कथा का वर्णन होता है । उसकी एक घटना दूसरी से सर्वथा सम्बद्ध होती है और कथा के सूत्र में कहीं भी व्यतिक्रम नहीं हो पाता । किसी शृङ्खला की कड़ियों के समान विभिन्न घटनाएँ एक दूसरी से मिली रहती हैं और उनके सम्बद्ध होने से ही एक प्रवाहमयी कथा का निर्माण हो जाता है । प्रबन्धकाव्य में कवि का ध्यान कथा के सूत्र की ओर ही रहता है । 1'3
किन्तु केवल शृङ्खलाबद्ध कथानक से ही किसी सफल प्रबन्धकाव्य की रचना नहीं हो जाती । कोरी इतिवृत्तात्मकता से प्रबन्धकाव्य रूपायित नहीं किया जा सकता । उसमें रसात्मकता की प्रतिष्ठा के बिना वह निर्जीव-सा
१. डॉ० सियाराम तिवारी : हिन्दी के मध्यकालीन खण्डकाव्य, पृष्ठ ३१ । ९. डॉ० इन्द्रपाल सिंह 'इन्द्र' : रीतिकाल के प्रमुख प्रबन्धकाव्य, पृष्ठ २ ।