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परिचय और वर्गीकरण
११५ के लिए चयनित किया है, उन सबमें उनकी दृष्टि वर्णन-विस्तार की ओर रही है । वर्णनों के नियोजन में ही उनकी पूर्ण तल्लीनता एवं रसमग्नता परिलक्षित होती है । कहीं-कहीं वे एक ही वस्तु के वर्णन में इतने तन्मय हो गये हैं कि मूल कथावस्तु पीछे रह गयी है, यहाँ तक कि कथावस्तु के स्वाभाविक विकास एवं प्रसार में गतिरोध की प्रतीति होने लगती है। कहीं-कहीं वर्णनों की भरमार से पाठक को ऊब का भी अनुभव होता है ।
यह ठीक है कि प्रबन्धकाव्य मूलत: वर्णनात्मक या वस्तु-चित्रात्मक होता है, किन्तु जब किसी रचना में इसकी अतिशयता देखी जाती है तब वह वर्णन-प्रधान की कोटि में आ जाता है। इससे यह न समझना चाहिए कि इस प्रकार के काव्यों में काव्यत्व, गांभीर्य, उदात्तता, कलात्मक सौन्दर्य आदि का अभाव है । इससे तो इतना ही आशय ग्रहण करना चाहिए कि काव्य की कोटि में लाने वाले तत्त्वों की स्थिति तो उनमें है; परन्तु वर्णनप्रियता की प्रवृत्ति के कारण कवि वर्णनों के विस्तार, बाहुल्य एवं इतिवृत्तात्मकता में इतने खो गये हैं कि उनमें वर्णन उभरे हुए परिलक्षित होते हैं । अस्तु, ऐसे काव्यों को वर्णन प्रधान प्रबन्धकाव्यों की संज्ञा दी गयी है, यथा : 'पार्श्वपुराण'।
घटना प्रधान
घटना प्रधान प्रबन्धकाव्यों का स्वरूप अन्य प्रकार के प्रबन्धकाव्यों से भिन्न है। उनमें घटनाएं प्रमुखता लिये हुए हैं, यहाँ तक कि उनमें कहींकहीं घटनाओं का घटाटोप भी दिखायी देता है । वहाँ कथावस्तु या पात्रों का चारित्रिक विकास पात्रों के क्रिया-कलापों में नहीं, प्रायः घटनाओं के आकलन में ही दृष्टिगोचर होता है । दूसरे शब्दों में, घटना-विकास पात्रों के समुचित कार्य-व्यापारों से नहीं हुआ। कथा के आरोह-अवरोह, भाव-गुम्फन एवं भावों के घात-प्रतिघात की न्यूनता के कारण वहाँ घटनाएं प्रबन्ध की सतह पर तैरती हुई प्रतीत होती हैं।
घटनामूलक प्रबन्धकाव्यों में भाव, अनुभूति, संवेदना अथवा संवेगात्मक स्थिति आदि का संश्लिष्ट चित्रण न होकर एक के बाद एक घटनाओं