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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
(महाकाव्य, काव्य और खण्डकाव्य) करते हुए 'खण्डकाव्य' को एक पृथक काव्य विधा स्वीकार करते हुए उसे परिभाषित किया। उनकी परिभाषा के अनुसार किसी भाषा या उपभाषा में सर्गबद्ध एवं एक कथा का निरूपक पद्य ग्रन्थ जिसमें सभी सन्धियाँ न हों, 'काव्य' कहलाता है और काव्य के एक अंश का अनुसरण करने वाला ‘खण्डकाव्य' होता है।'
हिन्दी के आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने विश्वनाथ कविराज की खण्डकाव्यविषयक परिभाषा को आधार रूप में ग्रहण कर इस काव्य विधा पर विस्तार से विचार किया। उन्होंने इसके स्वरूप निर्धारण की चेष्टा करते हुए लिखा- 'महाकाव्य के ही ढंग पर जिस काव्य की रचना होती है, पर जिस में पूर्ण जीवन न ग्रहण करके खण्ड जीवन ही ग्रहण किया जाता है, उसे खण्डकाव्य कहते हैं। यह खण्ड जीवन इस प्रकार व्यक्त किया जाता है जिससे वह प्रस्तुत रचना के रूप में स्वतः पूर्ण प्रतीत होता है।
वस्तुतः खण्डकाव्य में एक ही घटना की प्रमुखता होती है । डॉ० सरनामसिंह के शब्दों में 'उसकी रचना के लिए कोई संवेदनामात्र भी पर्याप्त होती है । उस एक घटना या संवेदना का चित्रण इतनी मर्मस्पशिता के साथ होता है कि उसकी लघुता में भी पूर्णता एवं प्राणवत्ता के दर्शन हो सकते हैं । उसमें न तो महाकाव्य के बाह्य लक्षणों के निर्वाह की ही अपेक्षा की जाती है और न समग्र जीवन के चित्रण की ही। प्रासंगिक कथाओं की योजना, घटनाओं के घटाजाल, पात्रों और उनके क्रिया-कलापों के बाहुल्य, विस्तृत वस्तु-वर्णन एवं प्रकृति-चित्रण आदि के लिए भी उसमें अवकाश नहीं होता।
खण्डकाव्य की कथा का विषय कुछ भी हो सकता है । 'उसका कथानक पौराणिक, ऐतिहासिक, कल्पित, प्रतीकात्मक-किसी भी प्रकार का हो
१. साहित्य दर्पण, ६ । ३२८ : ३२६ । २. वाङ्मय विमर्श, पृष्ठ ४६ ।
गुलाबराय : काव्य के रूप, पृष्ठ २३ ।